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कि जिनेन्द्र महावीर उनके नगर में पधार कर ज्ञान का प्रकाश फैलावे, जिससे धर्म की प्रभावना हो । यो तो उदयन इन सब गो को पालते थे, परन्तु निर्विचिकित्सा भाव उनका अपूर्व थाघृणा पर उन्होंने विजय पा ली थी । वह लोक के पदार्थों का ठीक स्वरूप जानते थे- शरीर की दुरवस्था से वह परिचित थे वह तो निरा अशुचिता का पिंड है, उससे राग और द्वेष ही क्या ? मुमुक्षु तो समभावी होता है । अमित दया का स्रोत उसके हृदय से बहता है । सेवा धर्म का रसिक वह सत्पात्रों की वैयावृति में विशेषत. अपने को खपा देता है वैसे साधारण रूप मे वह जीवमात्र का उपकार करता है । उदयन में यह सब बाते थीं । भ० महावीर के भक्त वह आदर्श श्रावक थे । एक देव एक दुका उनको परखने आया । वह मुनिवेपी वन गया । उदयन और प्रभावती ने बढी भक्ति से उसे पड़गाहा और शुद्ध आहार दिया | मुनिवेपी तो उदयन की परीक्षा करने आया था उसने वमन कर दिया | उदयन ने घणा नहीं की, बल्कि वह पश्चाताप करने लगे । आत्मशोधन की ओर उनकी दृष्टि गई । 'आहार मे क्या त्रुटि हुई जो साधु को इस व्यथा ने आ घेरा ?" उदयन रह रह कर यही सोचते । मुनिभेषी देव तो परीक्षा करने पर तुला हुआ था । उसने बड़ा दुगधमय वमन किया - स्वयं उदयन के ऊपर ही वमन कर दिया। उस दुर्गंधि मे मनुष्य का टिकना दूभर था, परन्तु राजा-रानी निर्निमेष भाव से उस देव को सच्चा मुनि समझे हुये सेवा करने मे तत्पर थे । उन्होंने जल से मुनिराज का शरीर धोया । देव भी उदयन की धर्मपरायणता देखकर दंग रह गया | उसने अपना देव का स्वरूप प्रगट किया । उनके सेवा भाव की उसने खूब ही प्रशंसा की । ग्लानि को जीतने में उदयन प्रसिद्ध हो गये । लोगों ने सोचा, दीनदुखी-रोगी- शोकी जीव कैसी भी दुरवस्था मे क्यों न हों उनसे घृणा नहीं करना चाहिये - शक्ति
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