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________________ ( २५६ ) करता है । नन्न रहने की दुर्धर तपत्त्या वह इस क्रम से ही पालन करता है। जब तक वह लज्जा को जीतने की क्षमता अर्थात् पूणे इन्द्रियनिग्रहता नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक वह वस्त्र का सवेथा त्याग नहीं करता~मुनिव्रत धारण ही नहीं करता। वस्तुत. वाह्य दिसम्बर क्षेपका सम्बन्ध मुमुन की आभ्यन्तर दशा से है-जब वह उस दशा को प्राप्त कर लेता है कि जिसमे सोते हुए भी उसके काम विकार नहीं होता तब वह मुनिव्रत धारण करता है। उसे धारण करके मुमुक्षु फिर पीछे पग नहीं बढ़ाता | बिल्कुल प्रकृति जैसा प्रकृति का वह हो रहता है । समतारस में भीगा हुआ वह जीवमात्र का हित सावता है। यह है मुनि का आसधारा-व्रत ! सम्राट् । शक्ति को न छिपाकर मनुष्य को सम्यक्रवाः रित्र धारण करना उचित है।" सम्राट उदयन और सम्राजा प्रभावती ने उन तपोधन को नमन्कार किया और उनसे उन्हान गृहत्य के बारहवत धारण किये। उदयन अव बढ़ सम्यग्हाट बन गये । सन्यक्त्व को पूर्णता पाठ अंगों के विकास से स्पष्ट होती है । उदयन उनके पालने में अभ्यन्त थे। वह पूर्ण निशङ्क थे- जिनेन्द्र महावीर के वह अनन्य भक्त थे-बीर वचन में उत्तको जरा भी शङ्का नहीं थी। श्राकाना को उन्होंने जीत लिया था। निर्विचिकित्सा-मात्र के लिये वह जगप्रसिद्ध थे। स देव, सच्चे धर्म और सच्चे गा के अतिरिक्त वह किसी को अपने हृदय आसन पर नहीं बैठाते थे। 'अमूवष्टि' यही तो होती है। माधर्मियों की कमजोरियों को छिपाकर वह उनकी त्रुटियां दूर करा कर उपनहन अंग का पालन करते थे । कदाचित् कोई सर्म से विचलित होता तो वह उसे अपने धर्म में स्थितिकरण करावे थे । भव्य जीवों पर उनकी वत्सलता असीम धी-साधमित्रों से वह गऊवत्स-वत् प्यार करते थे और धर्म की प्रभावना करने के लिये वह सदा बद्धपरिकर थे। उनकी यह कामना थी
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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