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( २५५ ) नहीं करता । सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करते ही वह मैथुन मात्र का त्याग करके मनसा-वाचा कर्मणा ब्रह्मचारी हो जाता है । वह काम कथा से भी विरक्त रहता है। सर्वथा ब्रह्म मे लीन रहने का अभ्यास करता है। परन्तु अभी उसने मोह-ममता पर लगाम नहीं लगाई है। इसीलिये वह सांसारिक काम धंधे से विलग नहीं होता-आरम्भ का त्याग नहीं करता है। किन्तु
ब्रह्म में रमने का अभ्यासी होने के कारण वह दूसरे कदम पर __ ही मोह ममता पर लगाम लगाता और आरभ का त्यागी
हो जाता है। प्रारंभ त्याग प्रतिमा में वह निरारम्भ होकर धर्म का पालन करता है। किन्तु इस कक्षा में वह अपने ममताभाव को सर्वथा नहीं जीत पाता और अपनी सम्पति आदि रखता ही है। परन्तु शीघ्र ही वह उसका भी त्याग करता है। परिग्रहत्याग प्रतिमा में वह वस्त्रमात्र रखकर सब प्रकार की वस्तुओं का त्याग कर देता है-उनमें ममता-भाव भी नहीं रखता है। दशवीं प्रतिमा अनुमति त्याग है, जिसमें वह त्यागी श्रावक ससार सम्बन्धी बातों मे अपनी सम्मति भी नहीं देता है-वह ससार से सर्वथा उदासीन होकर स्व-पर-उपकार करने में रस लेता है । ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा को धारण करते ही वह औद्दोशिक भोजन और गह का त्याग कर देता है। खंडवस्त्र धारण करके क्षुल्लक निग्रन्थ बन जाता है अथवा कोपीन (लंगोटी) लगाकर ऐलक होता है। वह मुनियों के साथ रहने लगता है और व्रताचार का पालन करता है। इस प्रकार क्रमशः संयम का पालन करता हुआ वह अपने को इस योग्य वना लेता है कि साधुपद को धारण करे। साधु अवस्था मे वह पूर्णतः अहिंसादि महाव्रतों का पालन करके मोक्ष सुख को पाता है। इस क्रम से मुमुक्षु अपनी उन्नति करने में कठिनाई नहीं अनुभव