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( २५४ ) भाव जागृत होता है। आत-रौढ़ दुर्ध्यान उसके पास नहीं फटकने पाते। इस प्रकार वह नियमित अभ्यास करके समभावी होने का प्रयत्न करता है। चौथी प्रोपधोपवास प्रतिमा है और इसमे अशन एवं प्रारंभ त्याग करके ध्यान और उपवास किये जाते हैं। साधारण प्रहस्थ के लिये यह सम्भव नहीं है कि वह अपना आत्मवल विकसित किये विना ही और धर्म के मर्म से अनभिन्न रहते हुए ही अनायास अनशनादि उपवास और तप को कर सके । इसलिए ही इस प्रतिमा मे जब उसका आत्मबल विकसित हो चलता है तब वह प्रत्येक मास की अष्टमी
और चतुर्दशी को-महीने मे केवल चार दिन ही प्रोषधोपवास धारण करता है। उस दिन यदि शक्ति हुई तो वह सर्वथा आहार जल का त्याग करके अनशनोपवास करता है अथवा जल लेता है। यदि सामर्थ्य न हुई तो वह एक बार आहार लेता है । उस दिन वह दिन रात धर्मध्यान मे समय विताने के लिए जिनेन्द्रअक्ति, शास्त्र-स्वाध्याय, रात्रि नागरण अथवा एकान्त श्मसानादिभूमि में मुनिवत् आचरण करके ध्यान माढ़ता है। अब वह अपने में त्यागभाव की मात्रा बढ़ाता है-जिव्हालम्पटता को जीतने के लिए क्रमश. खानपानादि में संयम और प्रत्याख्यान को पालता है। इसीलिए पाचवीं सचित्त त्याग प्रतिमा में वह सव ही सचित्त पदार्थों जैसे हरे पत्र-प्रवाल-कंद-फल-बीज और अप्रासुक जल का भी त्याग करता है। छठी प्रतिमा 'रात्रिभक्त:त्याग' में वह रात मे सर्व प्रकार के आहार का त्यागी होता है
और दिन मे मैथन त्याग का अभ्यास करता है। अभी तक उस मुमुक्षु गृहस्थ के स्पर्शन इन्द्रिय-भोग ( Sex appetite ) पर कोई प्रतिवन्ध नहीं था, किन्तु इस प्रतिमा में पैर रखते ही वह श्राधा ब्रह्मचारी हो जाता है-अपनी स्त्री से वह दिन में संभोग