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( २५३ ) उन्होंने समझा कि, "मनुष्य के लिये संसार मे कोई कार्य दुर्लभ नहीं है । लोकोद्धारक भ० महावीर ने जीवन विज्ञान का ठीक निरूपण किया है । जिज्ञासु उसे समझे और देखे संयमी जीवन विताना कितना सुगम है । दूरसे विशाल पर्वत की ऊँचाई अलंध्य दिखती है और कायर पुरुष उसे देख कर घबड़ाते हैं; परन्तु वीर घबड़ाता नहीं है। वह उस पर्वत को लांघने का दृढ़ संकल्प करता है और उत्साहपूर्वक उस पर चढ़ जाता है। चढ़ने में उसका उत्साह बढ़ता है-उसे अलौकिक आनन्द का अनुभव होता है। पर्वत शिखर पर पहुँचते ही उसका आनन्द असीम होता है-अम वह भल जाता है। ठीक यही बात धर्म-रसिक मुमुक्षु की है। वह मोक्षमार्ग मे अग्रसर होते ही वाह्य श्रम और कठिनाई को भल जाता है। भ० महावीर ने संयम धारण करने के लिये प्रहस्थ अवस्था से ही अभ्यास करना आवश्यक बताया है। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण इसीलिये किया गया है कि ग्रहस्थ अपनी आत्मोन्नति का अनुपात रक्खे और उसमें क्रमश. उन्नति करता जावे, जिससे वह एकदम घबड़ा न जावे। पहली दर्शन-प्रतिमा धारण करते ही श्रावक अष्टमूल गुण धारण करता और सात व्यसन एवं अभक्ष्य का त्याग करता है। शुद्ध सम्यग्दर्शन अष्ट अंगों सहित पालता है। जब वह अपने को इतना संयम पालने के योग्य पालेता है तब वह दूसरो व्रत प्रांतमा नामक कक्षा मे पदापण करता है। इस प्रतिमा मे अतिचार रहित अहिंसादि पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत
और चार शिक्षाव्रत वह मुमुक्षु पालन करता है। वह व्रती होकर संतोषपूर्वक जीवन यापन करता है। तीसरी सामायिक प्रतिमा में वह प्रातः, मध्यान्ह और सायंकाल को नियमित रूप से सामायिक करता है । सब जीवों के प्रति उसके हृदय मे सम