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________________ ( २५२ ) सावो । कर्मवीर हो, धर्मवीर बनकर भी चमको !' उदयन ने मस्तक नवाया-गुरु ने आशीर्वाद दिया । रानी ने पूछा,"तपोधन ! इन्द्रियों और शरीर का हमने पोपण किया-उनका उपकार साधा, परन्तु इसका पुरस्कार तो बढ़ापा दिखाई पड़ रहा है। , यह अनीति कैसी ?" उन्होंने समझा, "निस्सन्देह शरीर परपदार्थ है-अपना नहीं है। उसका पोपण अवश्य परोपकार है। आत्मा से सर्व निकट सम्बन्धी शरीर ही है। परन्तु यह तो सोचिये उसके आश्रित हो जाना~-उसके इङ्गित पर बन्दर जैसा नाच नाचना क्या परोपकार है ? यह तो दासता है और दासता दुखदायी है । दासता को दूरसे दण्डवत् करना विवेकी का कर्तव्य है । विवेकवान् सम्यक्त्वी दया का आगार और वीर्य एव शौर्य का भंडार होता है। वह दास नहीं स्वाधीन रहता है। अपना मला करता हैं और लोक कल्याण की हितकामना में अपने को खपा देता है। सेवा धर्म का वह पुजारी दीन-हीन, रोगी-शोकी, रंक-राव, सबको समष्टि से देखता है। घणा को वह जीत लेता है - तृष्णा को वह लात मार कर निकाल देता है । सज्जनों का वह भक्त बनता है और दुर्जनों को सुधारने के लिये उसकी प्रेम-तलवार सदा सुती रहती है। पहले वह अपना-अपनी आत्मा का उपकार करता है-अपने को सत्यधर्म के रंग में रंग लेता है। फिर वह अपने शरीर को संवारता है, क्योंकि वह जानता है कि हरपुष्ट और स्वस्थ शरीर ही धर्म साधने का आधार है। अब तक शरीर की पूर्ण उन्नति नहीं कर ली जायगी -वज्रवृपभनाराच संहननादि नहीं होंगे मुक्ति नहीं हो सकती। अत. शरीर को स्वच्छ, स्वस्थ और वलिष्ठ रखने के लिए संयमित प्राचार विचार और निरामिप शुद्ध भोजन एवं नियमित दैनिक जीवन व्यवहार रखना आवश्यक है।" सम्राट ने जिन्नासा की कि 'यह कैसे संभव है ? उत्तर में
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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