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सम्राट उदयन और सम्राज्ञी प्रभावती का भ० महावीर से जन्मजात स्नेह था। उसपर भगवान् थे लोक विभूति । अतः वह राजदम्पति वड़ा लालायित था कि कब भगवान महावीर का पदार्पण वीतभय नगर में हो। वे दोनों उनके अनन्य भक्त थे। भक्त ही नहीं वीर-शासन के अपूर्व प्रभावक थे। रानी प्रभावती की धर्मनिष्ठा ने ही राजा उदयन को धर्म का रसिक बनाया था। रानी के आग्रह से उदयन ने एक नयनाभिराम चैत्यालय निर्माण कराकर उसमें भगवान महावीर की सुवर्ण-प्रतिमा विराजमान की थी। एक दिन उदयन ने कहा, "चलो प्रिये ! गीत-संगीत का रस लेवे।" रानी अनमनी-सी रही। भावुक उदयन के दिल को ठेस आई। रानी ने कहा, "मैं भला क्यों रूगी ? पर सोचो तो आर्यपुत्र ! यह आधी उम्र तो य ही इन्द्रियों की सेवा करने में वोत गई, जिसका पुरस्कार बढ़ापा आगे दृष्टि पड़ रहा है। किसी गैर की सेवा करते तो वह भी ऐसा कृतघ्न न निकलता! यही सोच कर दिल ऊब रहा हैमन उचट रहा है ।" उदयन बोला, "अच्छा, अब समझा तुम्हारी व्यथा। चलो, चैत्यालय मे जिनेन्द्र महावीर की शान्तिछवि की प्रभा से अपने मन को शान्त करो !” राजदम्पत्ति जिनालय गये और जिनेन्द्रभक्ति मे वह पग गये। उपरान्त उन्होंने वीर-संघ के अग्रणी भ्रमण के दर्शन किये और उनसे धर्मतत्व का उपदेश सुना। उन्होंने समझा कि, “धर्मतत्व अपना और पराया हित साधने में है। और स्व-पर-हित अपनी स्वाभाविक दशा को प्राप्त करना है, जो चिन्दानन्द-परमात्म-स्वरूप है। इसलिये स्वयं अपना और अपने से भिन्न प्राणियों का हित आत्म बोध कराने में है, जिससे वे परमात्म-स्वरूप चीनने के लिये प्रयत्नशील हों। यही सबसे बड़ा उपकार है। अतएव जो तुम महान् हो तो अपना और पराया महान् हित