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राजर्षि उदयन की वैयावृत्ति । 'सव्वन्नू सोम-दसण अपुणभव भवियजण-मणाणन्द । जय चिन्तामणि जयगुरु जय जय जिण वीर अकलंक ।।'
जय! जय ! अक्लंक-वीर, जिन-महावीर को नय! रानी प्रभावती जब इस प्रकार जयघोष करती हुई श्री महावीर चैत्यधाम में प्रविष्ट हुई तभी उन्हे संतोष हुना। वह राना चेटक की पुत्री और भ० महावीर की मौसी थीं। सिन्धु-सौवीर के सम्राट् उड्यन की वह पट्टरानी थीं। वह सन्नाट कई-सौ जनपदों के अविनायक थे-कई सौ मुकुटवद्ध राजा उनकी सेवा करते थे। उनका महान् प्रताप था । वीतभय नगर उनकी राजधानी थी, जिसे रोकनगर भी कहते थे। इतने बड़े सम्राट थे वह, परन्तु बहुत ही सरल-स्वभावी और निरभिमानी ! "प्रभुता पाय काहि मद नाही" की उक्ति को उन्होंने मिथ्या प्रमाणित कर दिया था। उनके राज्य में नर-नारी ही क्या पशु तक निर्भय विचरते थे। उनका राजनगर इसीलिये वीतभच के नाम से प्रसिद्ध था, क्योंकि वहॉ निरंतर अभयान देने के लिये सम्राट उदयन विद्यमान थे।
"तेवं कालेणं तेणं समएवं सिन्धु-सोवीरेसु वणवएसुधीयमए नाम नगरे होत्या, उदायरे नाम राया, पनावई देवी ! • से ए उदाररेरावा सिन्धु सोवीर-पामोत्ताएं सोलसएई मणवपाणं वोयमय पामोरखाणं तिएह देवहारं मयर सपाणं महसेण-पामोक्लायं दसरह रापाएं वर मठडाणं विइरण सेय चामर-वायवीयणारं मनसि ए राईसर-तजवर-पानई भाइवच्छ फुपमाणो विहरह।"
-प्राकृत रुपा सग्रह।