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अर्थात्
४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४६५१२१६१६६६६६६६६६हहह६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६०४६५ ४ पद्म, १३ नियल, ४५ खर्व, २६ अर्बुद, ३० कोटि, ३० लक्ष, ८२ सहस्र और ०३१ महामहाशंख, ७७९ पराद्ध, ४६ पद्म, ५१ नियल, २१ खर्व, ६१ अवुर्द, ६६ कोटि, ६६ लक्ष ६६ सहस्र और हहह महाशंख, ६६६ परार्द्ध, ६६ पद्म, ६६ नियल, ६६ खर्व, ६६ अत्रुद, ६६ कोटि, ६६ सहस्र और ६६६ शंख, ६६६ पराद्ध, ६६ पद्म ६६ नियल, ६६ खर्व, ६६ अर्बुद, ६६ कोटि ६० सहस्र और ४६५ । सारांश यह है कि संख्यात अङ्कगणना लोक व्यवहार को चलाने के लिये जैन वाड्मय में अपूर्व और परिपूर्ण है । श्रुतज्ञानी मुनि जीवन्धर ने उसका महत्व करणानुयोग के शास्त्रों का अध्ययन करके प्राप्त किया था और श्रेणिक उनके मुख से उसका विस्तार सुनकर प्रसन्न हुए । तीर्थकर महावीर प्रणीत गणित विद्या यद्यपि आज संपूर्ण अप्राप्त है, परन्तु जो भी प्राप्त है वह अपूर्व है और उनके निखिल विश्व-ज्ञान की द्योतक है ।