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कराने लगा, जिससे कि रानी आपत्तिकाल में अपनी रक्षा कर सके। राजा की आशंका व्यर्थ न थी। दुष्ट काष्टांगार ने प्रगट विद्रोह किया। सत्यंधर ने उस संकटाकुल काल मे रानी को मयूर यंत्र मे विठा कर उड़ा दिया और स्वयं काष्टांगार की सेना से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
वह यंत्र राजपुर के बाहर स्मशान भूमि मे जा पहुंचा। राजन् ! उस समय वहीं विजया रानी ने एक पराक्रमी पत्र प्रसव किया । पूर्व संचित अशुभोदय थोड़ा सा भी दुखदायी होता है। यद्यपि वह पुत्र पुण्य का अधिकारी था, परन्तु जन्मते समय उसके किञ्चित् असाता का प्रसंग उदय में था। मनुष्य जो बोता है, उसका फल उसे भुगतना ही पड़ता है। यह दूसरी बात है कि अधिक शसोदय उसको निष्फल बना दे। विजया रानी के उस पुत्र के विषय मे यही घटित हुआ-उसका शुभोदय भी उसके पीछे २ चला आ रहा था। रानी ने उसका नाम जीवधर रक्खा और सेठ गन्धोत्कट ने उसका पालन पोषण किया। वही जीवंधर वह मुनिराज हैं, श्रेणिक जिनके तुम दर्शन कर आए हो। बाल्यावस्था मे आर्यनन्दि नामक जैनाचार्य के निकट उन्होंने शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा-दीक्षा पाई थी। जैन गुरू की दयामयी शिक्षा पाकर वह एक सच्चे वीर बने थे। दुखितदलित लोगों की सेवा करने में उन्हे रस आता था। ग्वालों की गउओं को भीलों से वह छुड़ाते थे । काष्टांगार को कर दृष्टि से बचने के लिए वह राजपुर से चले गये थे। मार्ग में उन्हों ने हाथियों के एक झण्ड को दावानल मे जलने से बचाया-चंद्राभा नगर की राजकुमारी को सर्पदंश से निर्विष करके प्राणदान दिया
और तापसों के आश्रम में पहुँच कर उन्हे सच्चे धर्म का अद्धानी बनाया। उनकी दयादृष्टि रंक और राव पर एक समान थी। घमते घामते जब वह क्षमपुरी के बाहर जा रहे थे तब उन्हें अपने