SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर श्रमण जीवंधर की सिद्धि। "स्थितं पिण्डिमम्याधी जीवंधर मुनीश्वरं । ध्यानारुद विलोक्येतद्रूपादिपु विपक्तधीः ॥१८॥ मुरादिमलयोद्यानायानं वीर जिनेशितुः । श्रुत्वा विभूतिमद्गत्या संपूज्यं परमेश्वरं ।।" -हनि उत्तरपुराण । एक दिन सम्राट अंगिणक विम्बमार भ. महावीर की वन्दना फरने विपुलायल गये । समागरण के बाहर उन्होंने एक पिगिट वृक्ष की साया में बैठे हुये एक प्रतिभासंपन्न मुनिराज के दर्शन किये । उनको कौतुक दया कि वह कौन हैं । निम्मन्देशमा महावीर के उपदंश को गहगा करके बडे २ गजा-महाराजा भी उनकी गरण में श्राफर आकिञ्चन्य महावा-धारी बने थे । अंगिक के पूछने पर गण घर महाराज ने उनको बनाया कि मोने की ग्यानों के लिये प्रमिढ मांगद नामक दंग है, जिसकी राजधानी राजारी है । सत्यंधर नामका राजा वहाँ राज्य करता था। उसकी शीलवान विजयारानी थी। गजा रानी में श्रागन था। उसने राजपाट का भार काष्टागार नामक राजकर्मचारी के ऊपर छोड़ रक्या था । देवात रानी गर्मवती हुई और उन दुम्यान होने लगे, जिनका फल विचार कर राजा ने अनिष्ट की सम्भावना की। उमने वश रक्षा के विचार से मयराकार एक यंत्र बनाया, जा कल वमाने में श्राकाश में उड़ सकता था। राना उस यन्त्र में विजया रानी को बैठा २ कर श्राकाश में उड़ने का अभ्यास
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy