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अब तुम समझे कि संचित कर्म अथवा पुरुषार्थ का परिणाम ही
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भाग्य अथवा प्रारब्ध
शब्दाल पुत्र ने नमस्कार किया और कहा, "उपाध्याय महाराज के निकट से मैं कर्म सिद्धान्त का रहस्य समझ सकुं, यह आशीर्वाद दीजिये, प्रभो !” और उसने श्रावक के व्रत गृहण किये । मङ्खलि गोशाल ने उसे बहुतेरा बहकाया, परन्तु वह अपने श्रद्धान मे दृढ़ रहा 1883
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शब्दालपुत्र ने प्रत्यक्ष देखा था कि भ० महावीर ने एक राजपुत्र के वैभव को त्याग कर और वाह्य सम्बन्धों से नाता तोड़ कर जीवन्मुक्त परमात्मा का पद प्राप्त किया था । उनका शुद्ध पुरुषार्थ ठीक फलित हुआ । फिर वह अपने पुरुषार्थ पर क्यों न विश्वास करते ?
कर्म सिद्धान्त का महत्व समझने के लिये स्व० प्र० शीतज• प्रसाद जी कृत " जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ" नामक प्रभ्य पदना हिये !