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'कर्म' से भाव केवल मन-वचन-काय की क्रिया ही नहीं समझना उचित है। जैन सिद्धांतानुसार कर्म सूक्ष्म पुद्गल है जो मन-वचनकाय की अविरति, प्रमाद और कपाय युक्त क्रिया से आकृष्ट होकर आत्मा के साथ काल विशेष के लिये सम्बन्धित हो जाता है । यही उसका देव या भाग्य है । ससारी जीव शुभ अथवा अशुभ रूप प्रवृत्ति करता है और उसी के अनुसार उसके शुभ अथवा अशुभ कर्मबन्ध होता है । यह उसकी स्वयं अपनी प्रवृत्ति है - इसमें कोई ईश्वरीय प्रबन्ध या किसी अष्ट शक्ति का हाथ नहीं है । नादि काल से प्रत्येक जीव के साथ यह सूक्ष्म शरीर लगा हुआ है, जो कार्माण कहलाता है । जब तक मनुष्य अपनी शुद्ध प्रवृत्ति द्वारा मुक्त नहीं होता, तब तक यह उसके साथ रहता है - बिल्कुल जुदा नहीं होता । स्थूल शरीर मृत्यु समय छुट जाता है, परन्तु यह सूक्ष्म कार्माण शेरीर संसारी जीव के साथ जन्म-जन्मान्तरों में जाता रहता है । यह कार्माण शरीर ही वह अदृश्य शक्ति है जो प्राणियों को सुख-दुख देने में कारण है । यही प्राणी का भाग्य है । प्राणी अपने पुरुषार्थ से इसे बनाता है । लोक में सूक्ष्म कर्म वर्गरणायें भरी पडी हैं, जिनसे यह कार्माण शरीर बनता है । जीव अपनी योगशक्ति द्वारा उनको खींच लेता है, जैसे गर्म लोहा पानी को खींच लेता है । विजली की शक्ति से दुनियाँ मे अपूर्व कार्य होते हैं । कर्मवर्गणाओं की शक्ति विजली की शक्ति से असख्यात गुणी अधिक है । अत उसके द्वारा ससार प्रवाह की अद्भुत प्रवृत्ति होना असंगत नहीं हो सकती ! इनका निर्माता स्वय पुरूपरूप जीवात्मा हैं । इसलिये सर्वथा सचित कर्मरूपी दैव पर निर्भर रहना बुद्धिमत्ता नहीं है । पुरुषार्थी बनना ही श्रेयस्कर है । शव्दाल पुत्र ! यदि कोई व्यक्ति कर्म सिद्धान्त का अध्ययन करता है तो वह भाग्य और पुरुषार्थ रहस्य को समझ कर अपना और पराया कल्याण करता है ।
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