SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २३७ ) पार्थ दृश्य है - प्रगट है । प्रारब्ध नाशवान् है- पुरुषार्थ शाश्वत है । प्रारब्ध पर पदार्थ है - निर्जीव अचेतन है; पुरुषार्थ अपनी चीज़ है - आत्मा का भाव है - सचेतन है । इसलिये विवेकका आश्रय लेकर अनेकान्त सिद्धान्त से ही वस्तुस्वरूप का निर्णय करना श्रेयस्कर है । नियतिवाद अथवा अज्ञानवाद के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये | यह ठीक है, संसारी जीवों को यह उत्सुकता रहती है कि उनका कौन सा कार्य पुरुषार्थ की अपेक्षा रखता है और कौन सा प्रारब्ध पर निर्भर है। यह बात जानना कठिन नहीं है, क्योंकि जिस वात का बुद्धिपूर्वक विचार नहीं किया गया हो, तो भी उसमे सुख-दुख और विघ्न-बाधायें स्वयमेव आ जावे, तो उस कार्य में मुख्यता दैव की या पूर्व में बांधे हुये अपने ही पुण्य-पापकर्मरूपी फल की प्रधानता समझना चाहिये । इसके विपरीत जो काम बुद्धि से विचार पूर्वक किया जावे और उसमें जो इष्ट या अनिष्ट प्रसंग उपस्थित हो, उसे अपने ही पुरुषार्थ की मुख्यता का परिणाम समझना उचित है । यद्यपि उस कार्य मे भी गौणरूप से इष्टलाभ प्रसग मे पुण्यकर्म का निष्टसंयोग मे पापकर्म का संसर्ग अदृश्य कार्यकारी | दोनों को परस्पर अपेक्षा से लेना श्रेयस्कर है, क्योंकि कर्म का भावी उदय क्या होगा ? यह छदमस्थ प्राणी नहीं जानता । अतएव प्राणी को तो अपना पौरुष न छिपाकर विवेक पूर्वक - विचार सहित प्रत्येक कार्य करना उचित है ।" शब्दाल पुत्र को ज्ञानप्रकाश मिला । वह प्रसन्न हुआ, परन्तु एक बात उसकी समझ में न आई। उसने पूछा कि कर्म मनुष्य की मन-वचन काया की क्रिया को कहते हैं । फिर कर्म और दैव एक कैसे ? किन्तु वीरवाणी में उसकी यह शंका भी निर्मूल होगई ! उसने जो सुना उससे वह समझा कि "जैनधर्म में 'कर्म' शब्द विशेषार्थ मे प्रयुक्त हुआ है - वह जैन सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है ।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy