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________________ ( २३६ ) शोभा सिरजते हैं। उनके वह संचित कर्म, जिसे प्रारब्ध कहो चाहे दैव या भाग्य उन्हीं के पुरुषार्थ का परिणाम है। अतएव भाग्य भरोसे बैठे रहना उचित नहीं है। विना पुरुषार्थ के मनुष्य भोजन में भी प्रवृत्त नहीं हो सकता । सर्वथा देवकान्त अथवा पुरुषार्थैकान्तवाद उपादेय नहीं है। वस्तु का ठीक स्वरूप अनेकान्तवाद से सिद्ध होता है। यदि देव से या पूर्व में वांधे हुये पाप-पुण्य-कर्म-रुपी भाग्य से ही कार्य की सिद्धि हो जाया करे-प्राणी को दुख-सुख हो जाया करेउसे ज्ञानादि की प्राप्ति हो जाया करे, तो देव के लिये पुरुषार्थ की आवश्यकता ही क्या रहे ? फिर तो यह बात ही सिद्ध न हो कि मन, वचन, कायकी शुभ या अशुभ क्रिया से पाप या पुण्य कर्म या देव बनता है। यदि देव देवसे ही बन जाया करे तो देव की संतान सदा चलने से कोई भी प्राणी कभी पाप-पुण्यरूपी कर्म-बन्धन अथवा देव-पाश से छूटकर मुक्त नहीं हो सके ! इस अवस्था में उसके दान, शील, नप, तप, ध्यान आदि सर्व धर्म पल्पार्थ निष्फल हो जावें ! किन्तु इसके साथ ही यदि सर्वथा पुरुषार्थ से ही प्रत्येक कार्य की सिद्धि मानी जावे तो पुण्यरूपी देव के निमित्त से पुरुषार्थ सफल हुआ या पाप के फल से असफल हुआ, यह बात नहीं कही जा सक्ती, क्योंकि लोक में प्रत्यक्ष देखा जाता है कि एकसा काम करने वाले कोई सफ्ल होते हैं और कोई सफल नहीं होते हैं ! जरा सोचो शहालपुत्र । यदि सर्वथा पुस्पार्य से कार्यसिद्धि हो जाया करे तो सर्व प्राणियों के भीतर पुन्पार्थ अवश्यमेव सफल हो जावेपापी जीवमी सुन्वी ही रहे, कभी कोई विघ्न बाधायें ही कहीं न होवें-सवका ही मनोरथ सिद्ध हो जाया करे। किन्तु लोक स अनुभव ऐसा नहीं है । अतुण्य प्रारब्ध और पुस्पार्य - दोनों ही जीवन व्यवहार के लिए आवश्यक हैं। प्रारब्ध श्रहग्य है-पुरु
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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