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( २३५ ) वह प्रतीक्षा में रहा । दूसरे दिन वह वीर प्रभू के समवशरण में गया और उनके दर्शन किये। वीर प्रभू ने उसके मन की बात जान ली और कहा, "शब्दालपत्र ! कल से तुम अपने धर्मगुरु गोशाल के आगमन की प्रतीक्षा में थे, क्योंकि जब से किसी पर्यटक ने तुमसे आकर मेरे आगमन की बाबत कहा तब से तुम इसी भ्रम में थे।" वीर-वाणी में यह गोपनीय एकान्तवार्ता सुनकर उसे श्रद्धा हुई । उसने सोचा कि "अहो | यह तो सर्वज्ञसर्वदर्शी महाप्रभू अर्हन्त वीर वर्तमान है।" और उसने पन. उनको नमस्कार किया। पश्चात् वीर देशना मे उसने 'नियतिवाद' की निस्सारता सुनी। उसे विश्वास होगया कि सर्वथा एकान्त प्रारब्ध को ही सब कुछ मानना गलत है । उसने प्रारब्ध और पुरुषार्थ का वास्तविक स्वरूप समझा था । जो कुछ उसने सुना, उसका भाव यही था कि "ज्ञान और अज्ञान का भेद न चीनना मिथ्या है। लोक मे प्रत्यक्ष बुद्धिपूर्वक कार्य करने का व्यवसाय चलता है। तब यह कैसे ठीक हो सकता है कि लोक मे जो होना नियत है वह होकर रहेगा--ज्ञानी हो, चाहे अज्ञानी, नियत ससार परिभ्रमण के पश्चात् ही दोनों की मुक्ति होगी ? इसलिये पुरुषार्थ को अनावश्यक समझ कर ज्ञान और पुण्य उपार्जन मे शिथिल होना उचित नहीं है। प्रारब्ध के-भाग्य के भरोसे बैठना देवकान्तवाद है, वह मिथ्यात्व है। संसार के सभी कार्य देव पर निर्भर नहीं हैं । निस्सन्देह प्राकृतिक दृश्यपत्र-पुष्पों की मनोहर रचना, हिमशैल की सफेद चादर ओढ़ना और इन्द्र धनुष का रंग विरंगा पड़ना मनुष्य कृत नहीं है, परन्तु उनमें भी पुरुपरूप आत्मा की अपूर्व अदृश्य शक्ति काम कर रही है। पूर्व सचित एकेन्द्रिय वनसति-पृथ्वी आदि काय नाम कर्मों का बध जिन जीवों ने किया है, वे पत्रपुप्य रुप वनस्पति, हिमकायिक और जलकायिक जीव बनकर प्रकृति की अपर्व