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सेठानी थीं। सेठजी के स्वभाव मे मायाचारी अधिक थी-वह कहते थे कुछ और, और करते थे कुछ औरही। एवं मन मे विचार भी कुछ और ही रखते थे। परिणामों की इस वक्रता के कारण ही उनके तिर्यञ्चाय का बन्ध हुआ-नियम है कि मायावी पुरुष मृत्यु उपरान्त पशुयोनि में जन्म लेता है। जो पशुगति के दुख से भयभीत है उस धर्मेच्छु को मायाचारी नहीं करना चाहिये; बल्कि सदा ही इस गुरूवाक्य को मनन करना चाहिये कि 'मन मे होय सो वचन उचरिये, बचन होय सो तन सों करिये। सेठ जी ने इस गुरूवाक्य पर ध्यान नहीं दिया। लक्ष्मी के लोभ मे अन्धे बनकर उन्होंने खूब छल कपट का व्यवहार किया-धर्म मे पजा भजन करते हुए भी वह सौदा करते। लाभ के लिए 'वोली' बोल लेते और लोग समझते यह सेठ जी बड़े धर्मात्मा हैं । साराशतः उनकी मायाचारी उनको पशु योनि मे ले गई-वह मर कर अपने घर की बावड़ी में मेडक हुए। अब उनका जीच वचन-क्रिया से लोगों को धोखा नहीं दे सकता था। उसे अपनी करनी का उपयक्त दण्ड मिला था। एक दिन उस मेंडक ने अपनी पर्वजन्म की पत्नी भवदत्ता को देखा आर दखत हा उसे पहले भव की सब बाते याद आ गई। उसका प्रेम उमड़ आया-वह उछल कर भवदत्ता के कपड़ों पर जा गिरा। भवदत्ता ने उसे हटाया। पर वह मेडक बार २ उसके ऊपर उछलता था। सेठानी ने सुत्रत नामक अवधिज्ञानी (Clairavoyant) मुनिराज से पूछा कि मेडक बारबार उसके ऊपर क्या कूदता है ? मुनिजी ने उसे पहले जन्म का सम्बन्ध बता दिया। भवदत्ता ने जब यह जाना कि वह उसका पूर्व-पतिका जीव है, तो उसे खशी हुई और वह उसे बड़े आराम से रखने लगी। जीवों का मोह ऐसा ही होता है। राजा श्रेणिक ! जब तुम यहाँ बन्दना के लिए आए और सेठानी भवदत्ता भी आई, .