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तो सेठ जी के जीव उस मेडक को भी जिनभक्ति की याद हो आई। उसने वावड़ी मे से एक फल तोड़ा और जिनेन्द्रभक्ति का प्रेरा वह वीर-वन्दना के लिए चल पड़ा। मार्ग में वह हाथी के पैर के नीचे दब कर अन्त को प्राप्त हुआ। मॅडक का भाव जिनेन्द्रभक्ति मे लवलीन या-वह उस अच्छे भाव को लेकर मरा, इसलिए बड़ी २ ऋद्धियों का धारक देव हुआ। देवों की जन्म से ही कुमार अवस्था होती है और जन्म से ही वह अवधिज्ञान (Clairavoyance) के द्वारा अपना पर्व वतान्त जान लेते हैं । उस देव ने भी अपना पूर्व वृतान्त जान लिया जिनेन्द्रभक्ति का परिणाम देवगति का सुख है' यह जानकर उसका हृदय धर्म भाव से ओतप्रोत हो गया। वह मट से अपने संकल्प को परा करने के लिये यहाँ आया--समवशरण में वही वन्दना कर रहा है। मेडक के जन्म से उसका सुधार और उत्थान हुआ, इसलिये अपने मुकुट मे मेंडक का चिन्ह बना रक्खा है।"
श्रेणिक वीरवाणी में जिनेन्द्र भक्ति का माहात्म्य सुनकर प्रसन्न हुये । उन्होंने पूछा, "भक्तवत्सल प्रभो ! जिनेन्द्र भक्ति का यह माहात्म्य क्यों है ? वह कैसे करना चाहिये ?" उत्तर में उन्होंने जो धर्म देशना सुनी, वह भावरूप में यह प्रकट करती थी कि “मनुष्य जिस ध्येय की सिद्धि करना चाहता है उसका ज्ञान और अनुभव उसे अवश्य होना चाहिये । अपने आदर्श को दृष्टि में रखकर ही मुमुक्षु उसकी पर्ति कर सकता है । भूगोल के विद्यार्थी को कलकत्ते का दिशाभाने दो तरह से ही हो सकता है। अध्यापक स्वयं उसे मार्ग बताते हुए कलकत्ता दिखा लाये अथवा परोक्ष रूप में भारत वर्ष का मानचित्र बनाकर उसे कल- ' कत्ते की स्थिति का ज्ञान करा दे। तभी वह भटकेगा नहीं और ठीक अपने इष्टस्थान पर पहुँच जायगा। मनुष्य संसार में पर्यटन कररहा है इस पर्यटन में उसका ध्येय परम सुखधाम 'निर्वाण'