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ये श्रीम
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जाय हरितकाय की जितनी कम चिराधना हो उतनी अच्छी ! इसलियें तहसी हिलाकर आम ले लेना चाहिये ! परन्तु पांचवीं क्वतिभावशुद्धि मे उससे भी आगे बढ़े जाता है। बद्द' कहता है, ट्रंदती हिला की मी क्या जरूरत ? जोप दृष्टिापडे उन्हें तोड़ लो टहनी हिलाने में को-पक सभी तरह फेनावश्यकता से भी अधिक गिर पड़ेंगे। इसलिये संयत रहकर
तश्यकता को यूर्ति कर लेना उचित है। यह पालेश्या के भाव है ।छटा व्यक्ति बहुत ही संतोषी मार्य है और भौवशुद्धि जा उसे प्रति समय ध्यान है। वह कहता है कि मनुष्य को पूर्ण विवेक काम लेनान्सचित है। सचित्तायामों को क्यों तोड़ा, जाय.? चित्ताप हुये ग्राम गिरे मिले, उन्हीं से. अमनी वप्ति करना चाहिया यह शुक्ललेश्यों के भाव है उत्कृष्ट
उपाय न आत्ममुमुक्षुओं को अपने हित के लिये इनकार पूरा ध्यान रखना श्रेयस्कर है! इस प्रकार के शुभ भावों से हो मुमुनु'शुद्धोपयोग को प्राप्त होता है । धमतचिं, मुनिराज इसे
आत्विक मनोविज्ञान से परिचित थे। उन्होंने सावधान होकर जव- अपने को पहचाना तो वह एकदम सुद्वोपयोग-आसस्वभाषा के पभोग में जा'रमे कि उन्हें चराचर''वन्तु का त्रिकालजा ज्ञान प्राप्त हुआ श्रेणिक भाकों पर ही जीव का भवितव्य" निर्भर है। इसलिवे जो भी क्रिया की जावे वह अच्छे भावों में सोचसमझकर करना उपादेय है
FERE इसी समय श्रेणिन्द्र ने देखा कि एक महद्धिक महापुरुष प्रभो । महावीर की चन्दना कर रहा है । उसका ल सौन्दर्य अपूर्व है।" वास्त्राभूपण राजसी हैं । मुर्छ में मेऊ का चिन्हें बना हुआ है, श्रेणिक को कौतूहल हुँा। उन्होंने पूछा, वह महापुरुष कौन है और उसका पुरव-माहाल्य क्या है ?" उत्तर में उन्होंने सुना . "इसी राजराही नगर में 'सेठ नागदत्त रहते थे भवदत्ता उनकी
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