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वह आत्मोन्नति नहीं कर पाता है । वह न स्वयं अपना उपकार करता है और न अपने साथी जीवों का । वह स्वार्थ में अंधा हो जाता है और अहिंसा के महत्व को नहीं जानता । मास में प्रतिसमय उसी प्रकार के सूक्ष्म कीटाणु उत्पन्न होते रहते हैंउनमें कितने ही जहरीले होते हैं । मूढ़ उनका भक्षण करके बोर पाप कमाता और कभी २ अपने प्राणों से भी हाथ वो बैठता है । निरामिष भोजन मे तीव्र परिणाम नहीं होते, बल्कि परिरणामों में कोमलता रहती है । वह अहिंसक स्वयं जीवित रहता है और दूसरों को जीवित रहने देने में सहायक बनता है । वह व्यर्थ ही अनर्थक स्थावर जीवों की हिंसा भी नहीं करता है ! यह है विशेषता निरामिष भोजन की । मांस भक्षक चिड़ीमार को निकलता देख कर पशु-पक्षी भयभीत होकर चिल्लाते हैं, परन्तु वही क्षमाशील अहिंसक वीर के निकलने पर शान्त रहते और सुख अनुभव करते हैं ! इसलिए सिंह | स्पष्ट जानो कि जीव के अपने शुद्धोपयोग रूप प्राणों का घात राग द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, शोक, जुगुप्सा और प्रमाद भावों से होता है । इसलिये इन रागादि भावों का अभाव ही अहिंसा है। भावों का तारतम्य ही एक व्यक्ति को हिंसा का दुखद परिणाम भुगतने के लिये वाध्य करता है और दूसरे को वही हिंसा बहुत सी अहिंसा के फल को देती है । जैसे एक मुनिराज ध्यान कर रहे हैं । उन पर एक महाक्रूर परिणामी सिंह आक्रमण करता है । एक शूकर को मुनि पर दया आती है - वह कोमल अहिंसामय भाव से प्रेरा हुआ मुनिराज की रक्षा के लिये जुट जाता है । सिंह और शूकर लड़ते २ जूझ मरते हैं। सिंह क्रूर परिणामों के कारण हिंसा करते हुए नरक में जाता है, परन्तु शूकर शुभ भावों के कारण हिंसा करता हुआ भी स्वर्ग को जाता है ! यह है भाव अहिंसा का पुण्य फल ! त मनसा वाचा कर्मणा
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