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________________ ( २१५ ) अहिंसा धम पालन करने में जीव का कल्याण है !" सिंह ने विनम्र हृदय हो शीश नमाया - वह बोला, "दीन बन्धो ! आपका शासन लोक कल्याण का मंगल प्रतीक है । अहिंसा का स्वरूप समझने में ही लोक का कल्याण है । परन्तु हे ज्ञान धन ! यह तो बताइये कि गृहस्थ अपनी लोक मर्यादा और आतिथ्य कर्तव्य निर्वाह मे हिंसा के पाप से कैसे मुक्त रहे ? कैसे वह अपने धन-जन की रक्षा करे ?" सिंह ने सुना था वीर वाणी मे कि "अहिंसा का पूर्ण पालन मोक्ष पुरुषार्थ के साधक मुनिजन ही करते हैं । साधु के घर है और न सम्पत्ति -- उसका अन्तरंग भी निर्मल है। दुनियां से उसे कोई सरोकार नहीं । इसलिए वह अहिंसा का मनसा, वाचा, कर्मरणा पूर्ण पालन करते हैं; परन्तु गृहस्थ भी यथा शक्य अहिंसाव्रत पालता है । वह जानबूझ कर संकल्पी हिंसा कभी नहीं करता है । जीवन निर्वाह मे आरम्भ और व्यापार धन्धे में उद्योगी हिंसा गृहस्थ के लिये अनिवार्य है । इन कार्यों को भी यदि वह सावधानी से करता है तो उसको बहुत कम हिंसा का पाप लगता है। लोक मर्यादा मे मूढ़ जन देवताओं की बलि मे और अतिथियों के सम्मान में पशु हिंसा करते हैं । यह हिंसा संकल्प पूर्वक की जाती है - गृहस्थ इस हिंसा के दोष से उसका त्याग करके वच सकता है। हिंसा में दोष ही दोष हैउसमे धर्म मानना भारी भूल है । गणधर इन्द्रभूति गौतम ने पहले यह भूल खूब की, परन्तु वह अब इसकी निस्सारता और भयानकता जानते है । कोई देवी देवता पशुवलि से प्रसन्न नहीं होता - मनुष्य की यह झूठी कल्पना है । महत् पुरुष भी यह कभी नहीं चाहेंगे कि उनके लिए दूसरे के अमूल्य प्राण लिये जावें । इसलिये धर्म और लोक मर्यादा के लिये भी पशुहिंसा विधेय नहीं हो सकती ! सिंह | अन्न- मिष्टान्न शाक और फल की सामग्री सेती स्वादिष्ट, स्वास्थ्य चर्द्धक और सात्विक भोजन वनते
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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