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पाया - सव को अपनी २ करनी का फल स्वयं भुगतना पड़ता उसके सगे सम्बन्धी चुप हो चले गये । जानते हो, उन्होंने क्या कर्मबन्ध किया ? सगे-सम्वन्धियों के हिंसामय भाव थे, इसलिये उन्होंने पाप कमाया और काल सौकरिक पुत्र दयालु हृदय था - उसने अहिंसक भावों से पुण्य कमाया । और सुनो, तुमने सिंह । प्रसिद्ध वैद्यराट् जीवक का नाम सुना है - वह रोगमुक्त करने के लिये चीड़फाड़ भी करते है । एक रोगी को उन्होंने चीरा लगायाबिल्कुल सावधानी से, परन्तु भाग्यवशात् उसकी हृदयगति क्षीण हो गई और वह मर गया। क्या राजा जीवक को अपराधी कहेगा और उसे प्राणदण्ड देगा ? नहीं न ? इसीलिये कि जीवक का भाव रोगी को मारने का नहीं, जिलाने का था । बस, अहिंसा सिद्धान्त की कुञ्जी यही है । भावों पर ही वह अवलम्बित है । हिंसा के भाव हों, फिर चाहे प्राणी हिंसा करो या न करो या दूसरों से कराओ या न कराओ, व्यक्ति का पाप बन्ध होगा । कृत-कारितअनुमोदना, एक समान हैं । मांस भक्षक भले ही प्राणीवध न करते हो, परन्तु उनके भोजन के लिए प्राणियों का वध होता है । इसलिए कारित हिंसा का दोष अवश्य है । अव सिंह | बताओ क्या मृत्यु मास का खानेवाला हिंसापाप का दोषी नहीं है ?" सिंह ने कहा, "अवश्य है, नाथ। मैं भला था - लिच्छविकुमार भी भूले थे । निर्ग्रन्थ सम्राट् । आपकी वचन वर्गणाओं से अज्ञान मिटा है । किन्तु प्रभो । कुछ लोग कहते हैं कि भोजन के लिए स्थावर - एकेन्द्रिय अनेक जीवों का वध करने की अपेक्षा एक बड़े से जीव का - पशु का वध करना उचित है - हिंसा दोनों में है । फिर निरामिष भोजन-पान में ही क्या विशेषता रही ?” सिंह ने सुना तो वह समझा कि "जीव-तत्व - विज्ञान को न समझने वाले अज्ञजन ही ऐसा कहते हैं। सिंह । वह ससारी जीवों के भेदों और उनकी प्राणशक्तियों को नहीं जानते हैं । ससारी
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