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( २११ ) आए और बोले कि निग्रंथ सम्राट । मैंने काल सौकरिक से हिंसा छुड़ा दी; अब मेरी गति क्या होगी ? उन्होंने उत्तर में सुना कि राजन् ! पूर्वमेवधे हुए शुभाशुभ कर्मों का फल उदयमे अवश्य आता है। तुम पहले नर्क आयु का बन्ध वॉध चुके हो, इसलिये वह एकदम हट नहीं सकता । कालसौकरिक के भी तीव्र मिथ्यात्व
और चारित्र मोहनीय कर्म उदय मे आ रहे हैं, इसीलिए वह हिंसा को नहीं छोड़ पाता। श्रेणिक अन्वकूप मे तुमने उसे डाला अवश्य, परन्तु वहाँ भी उसने मिट्टी के भैंसे बना कर मारे है । उन मिट्टी के भैसोको मारते समय भो उसके वैसे ही कर भाव थे और वही हिंसानन्द था जो उसे सचमुचके भैसों को मारते समय होता था। श्रेणिक ने देखा तो यह सच पाया । इसलिये सिंह । हिंसा और अहिंसा की परख मनुष्य के भावों से ही की जाती है। एक कृषक और एक धींवर है। कृषक मीलों जनीन जोत डालता है और त्रसस्थावर जीवों की विराधना कर डालता है। द्रव्य हिंसा खेत जोतने मे होती है। दूसरी ओर धीवर वसी डाले तालाब के किनारे बैठा रहता है-विल्कुल सावधान. जरा खटका हुआ कि समझा मछली पकड़ ली, परन्तु मछली फंसती एक भी नहीं । उसके भाव मछली पकड़ने मे ओत प्रोत रहते हैं। बताओ, उनमे से कौन हिंसा का अधिक पातकी है ? किसान नहीं, धीवर किसान के भाव-हिंसा का अभाव है और धीवर के द्रव्य हिंसा तो नहीं है, परन्तु भाव हिंसा जटाजूट है । इसलिये वह महापापी है। इसी कालसौकरिक का लड़का है - वह भव्य है । हिंसक व्यापार वह नहीं करता ! उसके सगे सम्बन्धियों ने समझाया और दबाया, पर वह तो भी विचलित न हुआ। कसाई न बना । उसने स्पष्ट कहा कि यदि तुम मेरा दुख बटालो तो मैं समझे तुम मेरे पाप-पुण्य के भागी वनोगे। यह कह कर उसने भैसे के गले पर नहीं, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी और दुख से बेहोश हुआ। कोई भी उसके दुख को न बॅटा