________________
( २१०)
भोजन करता है, इसलिए उस हिंसा का पातकी वही है । धमात्मा कभी भी जानबूझ कर प्राणीवध नहीं करते ।" सिंह ने बीच में कहा, "नाथ | यह कैसे ? जब गौतम ने प्राणीवध किया नहीं तब वह उसके पातकी क्यों ? ' सिंह ने समझा कि "मुग्ध जीव हिंसा और अहिंसा के स्वरूप को न जानने के कारण ही ऐसा कहते हैं। सिंह | यह बताओ कि तुम मेरे पास कैसे आये ? ऐसे ही न कि पहले तुम्हारे मनमें यह भाव उदय हुआ कि चलो ज्ञातपुत्र महावीर भगवान् से इस शंका की निवृत्ति करें ? इस भाव के अनुरूप ही तुमने कर्म किया। यह तुम्हारी भावक्रिया का स्थूल रूप था-उसकी सूक्ष्म प्रतिक्रिया तुम्हारे मानस क्षेत्र मे उस भाव के उदय होते ही होली अतएव प्रत्येक कर्म भाव और द्रव्य रूप से दो तरह का होता है। हिंसा और अहिंसा भी दो तरह है। (१) भाव हिंसा और (२) द्रव्य हिंसा । इनमें भाव हिंसा प्रधान है। उसके होते हुये द्रव्य हिंसा की जावे, चाहे न की जावे, परन्तु व्यक्ति हिंसा का अपराधी हो जाता है, क्योंकि प्रमत्तचित्त-क्रोध, मान, माया, लोभ के वश होकर वह अपने व अन्य प्राणी के भाव प्राणों का हनन करता है उसके परिणाम उतने ही कर हो जाते हैं, जितने कि प्राणीवध करते समय एक हत्यारे के होते हैं। सम्राट श्रेणिक की बात, सिंह ! तुमने सुनी होगी ! राजगह में काल सौकरिक नामक कसाई रहता है। श्रेणिक ने चाहा कि वह हिंसा का व्यापार छोड़ दे । कालसौकरिक हिंसानन्दी है वह वोला, इस काम में दोपही क्या है जो मैं इसे छोड़ दूँ ? इसके द्वारा मैं सहस्राधिक मनुष्यों की रसना-जति करने का श्रेय और अर्थलाभ पाता हूँ ! ऐसा अच्छा बन्धा में नहीं छोडगा । श्रेणिक ने लालच दिया, परन्तु वह न माना । हठात् श्रेणिक ने राजदण्ड दिया और उसे अन्धकूप में वन्द करा दिया। वह समझे कालसौकरिक अब हिंसा नहीं कर पायगा । श्रेणिक वोर समोशरण में