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SASLED
को तुम समझ सकते हो । जो सर्वथा नित्य अथवा अनित्य आत्मा मानते हैं, वे एकान्तवाद के मिथ्यात्व में पड़े हुए हैंऐसे मिथ्या मतवाद तीन सौ त्रेसठ हैं । परन्तु निर्प्रन्ध तत्वज्ञ ( जैनी ) अनेकान्तवादी हैं - वह स्याद्वाद दृष्टि से विवेचन करता है | वह कहता है कि आत्मा अपने स्वाभाविक दर्शन-ज्ञान गुण की अपेक्षा 'नित्य' है, क्योंकि उसके ज्ञानादिगुण कभी नष्ट नहीं होते । निगोदिया जैसे शरीर मे भी संज्ञारूप अक्षर के अनंतवें भाग में उसका प्रकाश झलकता है । इसे 'द्रव्यार्थिक नय' कहते हैं । 'नय' दृष्टि विशेष अथवा अपेक्षा विशेष का नाम है । और द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय है । वह तीन प्रकार का है -- (१) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार | द्रव्य मात्र सत्ता को छोड़कर असत्ता को प्राप्त नहीं होती - इस प्रकार समूहात्मक वर्णन करने को 'संग्रह' नय कहते हैं । संग्रह - नय से ग्रहण किये गये पदार्थों के विधिपूर्वक भेद करने को 'व्यवहार' नय कहते हैं । जो संग्रह और व्यवहार का युगपत् वर्णन करता है - सदा अनेकात्मक है वह नैगमनय है । नैगम नय संग्रह और असंग्रह रूप द्रव्यार्थिक नय है । ये तीनों द्रव्यार्थिक नय नित्यवादी हैं - वस्तुतत्व की निरूपक हैं । इनके द्वारा वस्तु के आकार-प्रकार अथवा पर्याय का निरूपण नहीं होता । 'परि' कहते हैं भेद को और भेद को जो प्राप्त हो वह 'पर्याय' ( Modification ) है । पर्याय ही जिस नय का प्रयोजन है वह 'पर्यायार्थिक नय' है अपेक्षा आत्मा नित्य है, क्योंकि जीव आत्मा की समय परिवर्तित होती रहती हैं । श्रतः पर्यायार्थिक वर्ती निरूपण करती है । वह ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत रूपों में विभक्त है ! राजन् इन्हीं नयों और प्रत्यक्षपरोक्ष प्रमाणों के आधार से तत्वों का निरूपण किया जाता है ।
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इस नय की पर्यायें प्रति
नय समय