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( २०५ ) जो नय-प्रमाण से वस्तु का विवेचन नहीं करते, वह एकान्त में जागिरते हैं और वैषम्य उत्पन्न करते हैं !" अजात शत्रु ने हाथ जोड़ कर शीश नमाया और कहा, "प्रभो ! प्रकाश-पुञ्ज हैं आप ! सन्मार्ग के प्रदर्शक हैं। अनेकान्त-सिद्धान्त के प्रणेता और दार्शनिक मतभेद के मेटने वाले हैं आप ! मैं आपकी शरण में हूँ" अजात शत्रु वन्दना करके लौट आया।
जव भगवान महावीर का निवाण हो चुका, तव अजातशत्रु कुणिक ने इन्द्रमति गौतम महाराज के निकट श्रावक के व्रत लिये थे। अपने अन्तिम जीवन में सम्राट ने अपना और पराया हित साधा था। भ० महावीर की समन्वय दृष्टि उन्हें प्राप्त हुई थी-वह एकान्त के नहीं अनेकान्त के पोषक थे । उन्हें दार्शनिकवाद शुष्क नहीं दिखते थे~बह सरस भासते थे। वाद भी सहानुभति पर अवलम्बित केवल अखंड सत्य को स्थापित करने के लिये होने लगे थे। अजातशत्रु ही नहीं, सब लोग अब 'ही' पर नहीं, 'भी' पर जोर देना जान गये थे । वह यह नहीं कहते कि 'मेरा कहना ही ठीक है, बल्कि यही कहते थे कि 'मेरा भी कहना ठीक है और नयवाद से उसकी सिद्धि करते थे। दर्शनवाद के जगत में भ० महावीर द्वारा प्रचारित यह अपूर्व क्रान्ति थी! दर्शनवाद में इसने समता, सत्य और सहानुभूति को स्थान दिलाया और लोक शान्ति का अनुभव करने लगा ! लोक ने भ० महावीर में एक सच्चे दार्शनिक तत्ववेता के दर्शन किये !