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________________ ( २०२ ) यही हाल आध्यात्मिक जगत का है। जो पूर्णज्ञानी है वह वस्तु के अनन्त गुणात्मक रूप को जानता और वतावा है; परन्तु अल्पज्ञ एकान्तवाद में पड़कर जन्मांध पुरुषों की तरह लड़तेझगड़ते हैं। निग्रन्थ गुरु एकान्तवाद की अज्ञानता को मेंट कर अनेकान्तवाद का प्रचार करते हैं और लोगों के मतभेद को मेंट कर उन्हें समन्वय दृष्टि प्रदान करते हैं ! 'धन्य हो, प्रभो! आपका अनेकान्त सिद्धान्त प्रचलित धर्मान्धता का अन्त करे और लोक सत्य को समझे यही भावना है। दयाल प्रभो ! उस अनेकान्त का स्वरूप जरा विस्तार से बताइये। इस पर अजातशत्र ने सुना कि 'राजन् ! तुम्हारा प्रश्न उत्तम है। यह तुम जान चुके कि मनुष्य की दृष्टि परिमित और सीमित है - वह कथंचित हो वस्तु को देख सकती है । वस्तु का सर्वाङ्गज्ञान उसे युगपत् नहीं होता और वह वचन से उसका विधान करने में असमर्थ है। अतएव एक ऐसा साधन चाहिये जिससे मनुष्य वस्तु के सर्व गुणों को बता सके । वस्तु अनन्त धर्मात्मक है. अनन्त शक्तियों का पुञ्ज है, अनन्त सम्बन्धों का केन्द्र है । सत्, असत्, एक, अनेक, नित्य, अनित्य, तत्, अवत् आदि अनन्त प्रतिद्वन्दों का निवास स्थान है । वह परिवर्तन की रङ्गभमि है, निरन्तर वहने वाला प्रवाह है, जिसका आदि है न अन्त ! वह इन्द्रिय वोध, वृद्धि कल्पनाओं और वचन कलापों से बहुत अधिक है। वह वर्तमान में वर्तता हुआ भी, भव-भविष्यत् दोनों को अपने गर्भ में समाये हुए है। वह केवल ज्ञानगम्य है, उसका अनन्तवॉ भाग बुद्धिगम्य है। उसका भी अनन्तवॉ भाग शब्दगोचर है। अस्तु; वस्तु का स्वरूप विवेचन ही अनेकान्तवाद है। वस्तु का निरीक्षण और परीक्षण स्याद्वाद अथवा नयवाद है और वस्तु निर्वाचन सप्तभंगीवाद कहलाता है । उसे 'अपेक्षावाद' कह सकते हो, क्योंकि उसमें वस्तुस्वरूप 'कथं
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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