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वन्ध को नष्ट कर देता है, तब वह मुक्त होता है । ऐसे नीवन्मुक्त परमात्मा इस लोक मे हुये हैं-इस समय भी हैं
और आगे भी होंगे। इस मुक्त दशा का नाम 'मोक्ष' है। मुक्ति में सुख है । अतः वह किसे नप्यारी होगी ? स्वर्गसुख अतीन्द्रिय निरायाध और शाश्वत नहीं है-वह भी नाशवान् है-पराधीन है। और पराधीनता में सुख कहाँ ? आत्मस्वातन्त्र्य ही सुखदायक है, जो मोक्ष है। अतएव साधु यदि उस अनन्त-अव्यावाव-सुख के लिये प्रयत्नशील होते हैं, तो अभिवन्दनीय हैं ! अजातशत्रु ने कहा, "निस्सन्देह वे वन्दनीय हैं प्रभो ! परन्तु साधुओं में मतभेद क्यों है ?" इस शङ्काकी निवृत्ति में उन्होंने सुना कि "मनुष्य-गृहस्थ हो चाहे साधु, जब तक अपने दर्शन और ज्ञान गुणों को पूर्णत. प्रगट नहीं करता तब तक अल्पज्ञ है-उसकी सीमित और परिमित वृद्धि है। वस्तु के एक-दो गुण को वह देखता है-उस का सर्वाङ्ग दर्शन वह नहीं कर पाता । इसी अज्ञान एकान्त-दृष्टि के कारण ही मतभेद दिखाई पड़ता है। वह देखो, तुम्हारा हाथी दूर से कितना छोटा दीखता है। क्या वह उतना छोटा है ? नहीं न? तो फिर ऑखो देखी वात का भी क्या विश्वास किया जाय ? प्रत्यक्ष ज्ञान तो आत्मज्ञान ही है और वह एकान्त (One-Sided Point of View) नहीं होता । जानते हो सम्राट ? एक दफा कई जन्मांध मनुष्यों में हाथी के आकार-प्रकार पर विवाद हुआ था। किसी ने हाथी का पैर पकड़ कर देखा था-वह उसे सीधा स्थम्भ-सा बताता था। किसी ने उसका कान देखा था-वह उसे सूप सा कहता था। गर्ज यह कि हाथी का जो अङ्ग जिसने टटोल लिया था, उसी के आकार का वह हाथी मानता था और लड़ता था। राजन् ! क्या उनका इस प्रकार विवाद करना ठीक था ? तुम कहते हो, नहीं? ठीक है, क्योंकि नेत्रवान् पुरुष उनकी त्रुटि समझता है। बस