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( २००) होंगे ? दुनिया के अनेक मत वाले वह लाभ अनेक तरह बताते हैं । उनके मत भिन्न २ हैं । कौनसा मत सत्य है ?" उत्तर में उन्होंने वह धर्मदेशना सुनी जिससे उनके हृदय-कपाट खुल गये। उन्होंने सुना, 'राजन् । यह सच है मनुष्य का उद्योग लाभ के लिये होता है; परन्तु लाभ दो तरह का है, (१) लौकिक और (२) पारिलौकिक ! लौकिक लाभ धन, सम्पत्ति, पुत्र, स्त्री विपयक हैं
और नाशवान् हैं। ये सब प्रगट पर पदार्थ हैं और पुद्गलाशों से इनका निर्माण हुआ है हमेशा यह किसी को सुखी नहीं बना सकते । उनमे स्वयं सुख है ही नहीं । रजकण शुष्क होते हैं । इसलिये साधु शास्वत सुख पाने के लिये मोक्ष पुरुषार्थ की साधना करता है। उसे लौकिक सुख की चाह नहीं होती । उसका लाभ अनन्त काल के लिये स्थायी होता है। धर्म और प्रकाश की तरह वह मोक्ष-सुख सदासर्वदा आनन्ददायक है । साधु पद का यह श्रेष्ठ लाभ है। निग्रंथ श्रमण निरन्तर इस प्रकार के सदुद्योग मे निरत रहते हैंसर्वदा संवर और निर्जरा करते हैं-सब पापों से दूर रहते हैंसब पापों को उन्होंने धो डाला है । पापवासना को संवरित करके वह परमार्थ जीवन विताते हैं । इसलिये वह निग्रंथ हैं !' अजात शत्र ने शीश मुकाया और कहा, 'नाथ ! अब मैं सममा, साधु जीवन से ही मानव को सर्वश्रेष्ठ लाभ होता है। किन्तु मोक्ष सुख किसी ने देखा नहीं, वैसे ही जैसे आकाश का कुसुम | फिर तो उन लोगों की वात ठीक हो सकती है जो कहते है कि साधु स्वर्ग लोक में देव-देवियों के सुख भोगते हैं, क्योंकि देव-देवियों को लोक ने देखा है ?' उन्होंने सुना कि 'मोक्ष को आकाश कुसुमवत् समझना भूल है। वन्धमुक्त होने का नाम मोक्ष है। मनुष्य को स्थूल नेत्र से दिखता है कि उसका आत्मा शरीर में बन्द है--यह बन्ध नाम कर्म का परिणाम है । सूक्ष्म कर्म वन्ध स्थल नेत्र से