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हुआ था - मोह शत्रु ने मुझे पहाड़ दिया था, आपने मुझे धर्म में स्थिर कर दिया ! धन्य हैं, थाप ! क्षमा कीजिये और चलिये महावीर के निकट मुझे मुनि-दीक्षा दिलाइये ! मैं पतित हुआ हू ।' 'तथास्तु' कह कर वारिपेण उठे और भगवान् महावीर के निकट आये । नमस्कार करके वह बैठे थे कि उन्होने सुना, 'मुनि वारिपेण स्थितिकरण धर्म के जीवित आदर्श हैं। नवदीक्षित मुनि सोमदत्त अपने विवेक को खो बैठे, यह कुछ अटपटी बात नहीं है ! इन्द्रियों के विषय इन्द्रायन - फल जैसे सुन्दर और मोहक है, परन्तु उनका परिपाक कडुवा है। मूड उसको नहीं देखता दूरदर्शी तत्ववेत्ता ही उसे पहिचानता है । वारिपेश ने धर्म का आदर्श मूर्तिमान किया है। गिरतों को गिरने से रोकना और गिरों को उठाना सम्यक्त्वी का धर्म है । वह दर्शन विशुद्धि का प्रतीक है। स्थितिकरण और उपवृद्ध सम्यक्त्व के अंग है। असमर्थ हो रहा है संसार - धर्ममग में आगे बढ़ते उसके पैर लड़खड़ाते हैं। सम्यक्त्वी उससे घरणा नहीं करता उसके हृदय में अमित दया है। उसके हृदय से दया की वर्षा दीन-दुखिया और पवित के प्रति वैसे ही होती है, जैसे उच्च नीलाकाश से सलिल ओसविन्दु गिरती हैं। जो सुख चाहते हैं उन्हें मुनि वारिपेण के आदर्श का अनुकरण करना उचित है । लोक की कल्याण - भावना प्रत्येक के हृदय में जागृत हो, यह सुख का आधार है !"
श्रोताओं ने जय ध्वनि की । सोमदत्त ने गुरुदेव से प्रायश्चित लिया । अव की उन्होंने दृढ़ता से मुनिधर्म पाल कर कर्मपाश से अपने को मुक्त किया । वारिपेण भी मोक्ष को प्राप्त हुए ! सव ने कहा, 'मुनि वारिषेण के समान गिरों को गिरने से बचायेंगे हम ! भगवान् महावीर का उपदेश सिर आखों पर लायेगे हम !"