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________________ (१९१ ) मंत्रवादी ने उस सांप को बुला लिया जिसने रानी को काटा था; परन्तु वह सांप इतना क्रोधी था कि उसने रानी को निर्विष नहीं किया, बल्कि स्वयं अग्नि में जल मरा । रानी! अब जरा सोचो, वह क्या समझ थी ? सर्प जैसी जिद और दृढ़ता तो धर्म पालन __ में शोभती है। यह सुभाषित वचन भी है 'वरं, प्रविष्टे ज्वलिते हुताशने। न चापि भंगी चर संचितं व्रतं ।। वरं हि मत्यः सुविशुद्ध कर्मणां । न शील वृत्त स्खलितं हि जीवितं ।' 'अपने व्रत को भंग करने की अपेक्षा अग्नि में प्रवेश करना अच्छा है। शील व्रत को नष्ट करके जीवित रहना किस काम का?' इतने में अंतःपुर से सब ही शङ्गार किये हुए वारिषेण की पत्नियाँ आ गई। वह अनुपम सुन्दरी थी-पति आगमन की वार्ता ने उनके सौन्दर्य को और विकसित कर दियाथा। वे आई और नमस्कार करके बैठीं। वारिषेण ने सोमदत्त से कहा, 'मित्र! देखते हो ? ये रमणियां कैसी सुन्दर हैं ? तुम्हारी पत्नी से भी सुन्दर हैं न ? यदि प्रणय-वासना जगी हो तो इनमें ही रमो ? घर क्या करोगे जाकर ?' बारिषेण का तीर काम कर गया। सोमदत्त के पैरों तले से पृथ्वी खिसक रही थी। वह लज्जा और पश्चाताप की मूर्ति बन रहे थे । वारिषेण के त्याग ने उनकी आंखें खोल दी। वह बोले, 'आप धन्य हैं ! आपका धैर्य और त्याग श्रेष्ठ है। आप सत्यवीर हैं-शील सम्पन्न हैं । आप सहश मिन पाकर मैं सौभाग्यशाली हुआ हूँ। मूढ़ताओं से निकाल कर आपने रत्नत्रय धर्म मार्ग पर मुझे लगाया है। मैं चलायमान
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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