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(१६०) प्रासाद में दोनों मुनि पहुंचे। महारानी चेलनी यह देख कर विस्मित हुई, क्योंकि दिगम्बर जैन मुनि आहारवेला के अतिरिक्त किसी भी गृहस्थ के घर पर नहीं जाते हैं । परीक्षा के लिये
चेलनी ने दो आसन डाले~वारिषेण प्रासुक आसन पर बैठे, परन्तु सोमदत्त के पास यह विवेक न था । उपरान्त वारिपेण ने कहा, 'मॉ हमारी पत्नियों को तो जरा दुलालो चलनी ने 'हॉ, तो किया, परन्तु उसका हृदय सशक हो धड़कने लगा! क्या उसका पुत्र मुनिधर्म से पतित हो रहा है। वह गृहस्थ है तो क्या ? उसका भी अपना कर्तव्य है वह वीर संघ के सभी अङ्गों को निर्दोष और प्रभावक ही देख सकती है! सच्चा जैनी धर्म की अप्रभावना कैसे सह सकता है ? रानी ने धर्म कथा सुनने की इच्छा दर्शाई। वारिपेण ने उत्तर दिया, 'आज मॉ तुम्ही धमकथा सुनाओ! चेलनी को अपनी वात कहनी थी-उसने कहा, 'सुभद्रा ग्वालिनी का सुभद्र वेटा था । वह गऊ चरा कर अपनी गुजर-वशर करता था। एक दिन उसके साथी ग्वालिये ने उसे खीर खिलाई। सुभद्र को वह अच्छी लगी। घर आकर उसने खीर की जिद की। विचारी गरीब माँ ने मॉग-मंग कर उसकी जिद पूरी की। सुभद्र रसना का दास था। वह खीर खाता चला गया यहाँ तक कि उसे कै हो गई, परन्तु खीर उसने फिर भी मॉगी। खीर सब खत्म हो गई थी। माँ मला गई, उसने उल्टी की खीर उसके सामने रख दी। रसना लम्पटी ने उसे भी खा लिया । मुनिवर । क्या उसने यह ठीक किया ।
वारिषेण ने चेलनी का अभिप्राय वाड़ लिया-उसकी धार्मिकता और विनय भावना पर वह प्रसन्न थे-बोले, 'यह कथा सुनो। उज्जयनी में वसुपाल राजा रहता था। वसुमती उसकी रानी थी। दोनों में गहरा प्रेम था। होनी के सिर एक दिन रानी को सांप ने काट लिया। मंत्रवादी बुलाये गये। एक