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स्तुति की। संघ के समस्त साधुओं को भी उन्होंने नमस्कार किया । चारिषेण एक योग्य आसन पर जा विराजे । सोमदत्त भी उनके पास ही जा बैठे। एक साधु ने कहा. 'सोमदत्त ! पुण्यात्मा विशुद्ध हृदयी हो, जो भगवान् की शरण मे आये हो । महती तपस्या करने की तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो ।" यह बात एक ब्राह्मण साधुभेपी को असह्य हुई - वह क्रुद्ध हो बोला, 'यह मूढ़ क्या तप करेगा ? इसे आगम का सामान्य ज्ञान तो है नहीं ! मूर्ख अपनी काली-कलटी स्त्री की याद में दुबला हुआ जा रहा है ।' यह कह कर उसने वीभत्स अट्टहास किया और किन्नर - किन्नरी का रागवर्द्धक गीत यूँ गाने लगा :'कुचलय नवदल सम रुचि नयने । सरसिज दल विभव कर चरणे || श्रुति सुख कर परभृत वचने । कुरु जिन नुति मयि सखि विधु वदने || बहु मत्त मलिन शरीरा मलिन कुचेलाधि विगत तनु शोभा । तद्गमनदग्ध हृदया शोका तप शुष्क मुख कमला ॥ विगता गत लावण्या वरकांति कलाकलावषीर मुक्ता । किं जीविष्यत्यवनिका नाथेपि गतेऽवयं योयं ॥'
इस प्रणयगीत ने सोमदत्त के चंचल मन को डॉवाडोल बना दिया । उन्हें रह-रह कर अपनी प्यारी पत्नी की याद सताने लगी । राग और मोह ने उनके विवेक को अंधा बना दिया । वह घर जाने के लिये तैयार हो गये । वारिषेण ने यह देखा । उन्होंने सोमदत्त को रोका नहीं, बल्कि कहा, 'सोमदत्त | घर जाओगे तो चलो प्रभु महावीर का आशीर्वाद लेकर चलो। मित्र हो, हमारे घर भी होते चलो !' सोमदत्त ने बात मान ली। राज