SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८८ ) विभोर हो थिरकने लगा । अहिंसक वीर के प्रयाण में दुन्दुभि का घनघोर नाद होने लगा। भगवान महावीर के पाद-पद्मों में वारिषेण की धर्म-सौरभ विकसित हो गई। वह स्वयं धर्म में दृढ़ थे और दूसरों को धर्मपद में स्थिर और दृढ़ करते हुए उन्हें रस आता था। पावसकाल के मेघपटल की तरह वह हजार कष्ट सहन करके भी धर्म-वारिवर्षा द्वारा त्रस्तभव्य-चातकों को सन्तुष्ट करते थे। एक रोज विहार करते हुए वह जा रहे थे। पलाशपुर से उनका मित्र राजमन्त्री का पुत्र सोमदत्त भ० महावीर की वन्दना के लिये आ रहा था। मुनि वारिषेण को देख कर उसका सखाभाव जाग उठा । वह का और उसने उन्हें भक्तिपूर्वक आहार दान दिया। वारिपेण ने भी मित्र का सच्चा हित साधा । उनके उपदेश से वह साधु हो गया। साध तो वह हुआ, परन्तु उसका मन ममता में फंसा रहा। वह बोला, 'मित्र, याद है यही लता-कुल हैं जहां हम, आप मिल कर केलि करते थे। मधुर संगीत अलाप कर आनन्द विभोर हो जाते थे। क्या वीर संघ में वह आनन्द है ? 'वारिपेण मुस्कराये और बोले, 'सोमदत्त ! यह तो अभी कल की वात तुम कहते हो ? पर याद करो, न जाने कितने अनन्त जन्मों में श्रोत्र इन्द्रिय को प्रिय, संगीत लहरी हमने तुमने सुनी होगी? क्या उससे तृप्ति हुई ? नहीं ! केवल उसको सुनने की तृष्णा बढ़ी है। वह आशा-वह तृष्णा, जानते हो, जो संसार में रुलाती है ! मन को गन्दा करती है। गन्दी चीज में कहीं आनन्द है ? वीरसंघ शान्ति निकेतन है-कल्याणधाम है! हाथ कंगन को आरसी क्या ? चलो और दर्शन करो!' दोनों ही मुनि भ० महावीर के समोशरण में पहुँचे । सोमदत्त का मन पवित्र हो चला । उसने सोचा. 'वारिपेण ठीक कहते थे । वीर प्रभ की निकटता संसार तापहारी है। बड़ी भक्ति से दोनों मुनियों ने भगवान् की वन्दना
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy