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ने समझा, चोर पाखण्डी है - ध्यान का बहाना लेकर वचना चाहता है और कोई वहाँ था भी नही। कोतवाल ने उसी को ही अपराधी माना और श्रेणिक के सम्मुख न्याय की याचना की ! श्रेणिक अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं करते थे उनका पुत्र चोर होगा ? वह वारिषेण जो सम्यक्त्वी धर्मात्मा था. अपनी माँ का हार चुरायेगा ? श्रेणिक का जी कहता था 'नहीं ।' परन्तु साक्षी कहती थी कि 'चोरी की चीज वारिपेण के पास थी । अतः वह अपराधी है ।" श्रेणिक न्याय की तराजू और दण्ड की नंगी तलवार लिये न्याय आसन पर बैठे थे । वह पुत्र के मोह में क्या न्याय का खून करते ? उन्होंने प्राण दण्ड की आज्ञा सुनाई। प्रहरी वारिपेण को श्मशान भूमि मे ले गये । चाण्डाल उनका वध करने लगे; परन्तु यह क्या ? वह विवश थे ! उनका हाथ चलता न था । धर्म का फल प्रभाव दिखा रहा था । एक देव ने वस्तुस्थिति देखी थी । उसने मगधराज्य की न्याय व्यवस्था भी देखी । वह प्रसन्न था । वारिपेण पर उसने पुष्पों की वर्षा की। राजगृह मे श्रेणिक के न्याय और वारिषेण की धार्मिकता की चर्चा-वार्ता ठौर- ठौर होने लगी। राजा श्रेणिक ने सुना तो वह प्रसन्न हुए। रानी चेलनी के साथ वह राजकुमार वारिषेण को लिवाने आये । बोले, "बेटा ! हमें विश्वास था कि तुम निर्दोष हो, परन्तु राजदण्ड पिता पुत्र नहीं देखता । लोकापवाद का अवसर हमने नहीं दिया ! अब चलो, घर को ।" वारिषेण गद्गद् हो बोले, 'संसार में न कोई किसी का पिता है-न पुत्र, न माता है - न पत्नी ! मोह ममता मे लोग अंधे हो रहे हैं - स्वार्थ के सब सगे हैं। मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि यदि इस उपसर्ग से बचा तो भगवान महावीर की शरण लूँगा - उपवास का पारणा पाणिपात्र में करूँगा । ' श्रेणिक और चेलना ने उनके दृढ़ निश्चय के सामने मस्तक झुकाया । वारिषेण निर्मन्थ साधु हो गये । राजगृह आनन्द