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( १८६ ) अन्त निकट है। उनके व्रत पालने की उत्कट रुचि होती है। सुअवसर पाकर वे पंच पापों का सर्वथा त्याग करके साधु हो लाते हैं और अहिंसादि महाव्रतों का पालन करते हैं। साधु के महान पद को प्राप्त करने के लिये चे गहस्थाश्रम से ही अणुत्रता
और शिक्षाबतों का अभ्यास करने लगते हैं। आखिर चोटी पर क्रमशः ही पहुँचा जाता है कोई विरला महापराक्रमी हो तो उसकी बात न्यारी है । गहस्थ पंचपापों का आशिक त्याग करने के कारण ही श्रावक-अद्धावान् कहलाता है !
राजकुमार वारिषेण श्रद्धाल श्रावक थे। वह सम्राट् श्रेणिक के पुत्र थे। उनकी माता भगवान महावीर की मौसी महारानी चेलनी थीं। वारिपेण अत्यन्त गुणी और सम्यक्त्वी थे। वह निःशङ्क होकर व्रत-उपवास करते थे। एक दफा चतुर्दशीपर्व पर उन्होंने प्रोषधोपवास धारण किया। राव को धर्मध्यान की आराधना के लिये स्मशान में जा विराजे ) समभावी होकर वह खड़े २ आत्मा के स्वभाव का चिन्तवन करने लगे।
राजगह में विद्य त् चोर रहता था। मगध सुन्दरी वेश्या से उसका प्रेम था। उस दिन जब वह वेश्या के पास पहुँचा तो उसकी वेढव फरमाइश सुन कर दंग रह गया। वेश्या ने कहा, महारानी चलना का हार पहनेंगी। राजमहल मे सोती हुई 'महारानी के गले से हार निकाल लाना सुगम न था । पर कामी परुष अन्धा होता है। वह वेश्या के मन को ठेस कैसे पहुँचाता? वह राजमन्दिर में गया और अपने चौर्य-कौशल से हार निकाल लाया। किन्तु राजपथ पर रत्नहार की चमचमाइट वह छिपान सका। कोतवाल ने उसे टोका। वह एक-दो ग्यारह हुआ। सिपाहियों ने उसका पीछा किया। कोई दूसरा उपाय न देखकर हठात् उसने वह रत्नहार वारिषेण के पास छुपा दिया-रत्नहार की चमक ने सिपाहियों को बुला लिया। चोर भाग गया। कोतवाल