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वारिषेण मुनि का सम्यक्त ! 'समकित सहित आचार ही, संसार में इक सार है। जिनने किया आचरण उनको, नमन सौ सौ बार है।'
जीव की अशुभ परणति को पाप कहते हैं । 'जो अपने को अप्रिय है, वह दूसरे को भी अप्रिय भासेगा'-इस सत्य की उपेक्षा करके जो भी बरताव मनुष्य करता और आकुल-व्याकुल होता, वह सब मिथ्या परणति है-पापाचार है। भ० महावीर ने इस पापाचार को मुख्यतः पांच प्रकार बताया है, अर्थात् (१) हिंसा, (२) झठ, (३) चोरी (४) कुशील और (५) परिग्रह । मनुष्य को इन से बचना चाहिये । इसीलिये भगवान् का उपदेश था कि
(१) किसी जीव की हत्या मत करो, (२) कभी मठ मत बोलो-~अप्रिय सत्य भी मत कहो, (३) कभी भी दूसरे की रक्खी हुई या गिरी पड़ी हुई वस्तु मत लो, (४) अपनी पत्नी में सन्तोष धारण करो-जगत की शेष स्त्रियों को मॉ-बहन समझो, और (५) आवश्यकताओं को सीमित करके जरूरत से ज्यादा परिग्रह मत रक्खो ।
इस प्रकार पांच पापों का एक देश त्याग करने से मनुष्य की आत्मरुचि होती है और वह आत्मस्वभाव मे थिरता रूप निश्चय चारित्र पा लेता है। केवल सच्चा श्रद्धान और सच्चा ज्ञान जीव को निर्वाण-पद नहीं दिलाता । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यकचारित्र की समिष्टि ही मोक्ष प्रदायक है । जिन जीवों को सर्वज्ञ आप्तदेव तीर्थकर भाषित धर्म में विश्वास अथवा निश्चय से जिनको अपनी आत्मा के अस्तित्व और अनन्तगुणों का श्रद्धान है, वे सभ्यग्दृष्टि जीव हैं। उनके संसार-भ्रमण का
जाव को निपालेता है। वह आत्मस्व