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अवश्य !"
अब मेधकुमार राजपुत्र नहीं थे वह एक साधारण भिनु बने सोने की सेज और मखमल के गहे पर इन और फ्लों की सुगन्धि में सोने वाले वह कुमार सवही मुनियों के अन्त में द्वार के पास प्रामुक पथ्वी पर एक करवट मे लेटते थे-~वहीं साव घानी से बैठते उठते थे। आते जाते साधुओं के नननागमन से उन्हें मानसिक कष्ट होता था। वह सोचते, जब राजपुत्र था, तब तो यह भिनुगण मेरा आदर करते थे अब कोई मुझ से वात भी नहीं करता। मेषकुमार भल गये कि वह और उनके साथी मुनिजन साधना के मग लगे है उसमे बातें नहीं, मौनब्रत पाला जाता है इन्द्रियों और मन का निरोध किया जाता है। परन्तु मेषकुमार के लिये वह बहुत कुछ था। राजऐश्वर्य में लालित-मालित मेषकुमार यदि तावना के मार्ग में विचला तो अस्वाभाविक नहीं। उन्होंने सोचा, भ. महावीर से पाना लेकर घर चलना चाहिये और वह भगवान् से आज्ञा मांगने के लिये उनके सन्मुख पहुँचे भी। किन्तु सेवकुमार कुछ कहें कि उसके पहले ही घट-घट के ज्ञाता प्रभ नहावीर ने कहा, "हे मेघ ! श्रमणसमुदाय के अन्त न तुन्दारा आसन तुन्हें असह्य हैभमणों की उदासीन वृत्ति तुन्हें अखरती है, परन्तु वीतरागी और समभावी होने के लिये यह साधना आवश्यक है! मेघकुमार भगवान् के मुख से यह वचन सुनते ही अवाक रद गया। उसने आगे सुना,-'हे मेघ ! तुन्ने याद नहीं है; परन्तु मैं बराबर जानता हूँ कि अब से तीसरे भव ने तेरा जीव एक हायो की पर्याय में था। एक दिन बड़ी वेग से आँधी आई, जिसके बहाव में तू दिङ्मुद हुआ वह गया और एक दल-बल में जाता। ज्योंब्चों तु निकलने का प्रयत्न करता त्यों-त्यों तु और सता था। भखा-प्यासा तु अधनुआ हुआ। इतने में तेरे वैरी वहां आये