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( १८१ ) भयभीत थे-लोक का उद्धार करने के लिये लालायित थे । जब कोई उपाय चलता न देखा तो राजा-रानी ने उनका राज्याभिषेक किया और बड़े मंगलोत्सव से उन्हें दीक्षा लेने के लिये विदा किया। मेघकुमार महापराक्रम करने के लिये जा रहे थे। एक विजयी वीर के समान उनका जय-जय-कार हो रहा था । मागधजन आशीर्वाद सूचक शब्दों में घोषणा कर रहे थे किः
"न जीतीं गई इन्द्रियों को जीतिये; श्रमण धर्म को पालिये; धैर्यरूपी कच्छ वांध कर तप से राग द्वष रूपी मल्ल को इनिये; उत्तम शुक्ल ध्यान से आठ कमाँ को मसल डालिये निर्भय रह कर विघ्नों की सेना का नाश कीजिये ! जय हो मेघकुमार । तुम्हारे मार्ग में विघ्न न आवे!"
देखते ही देखते सब लोग भ. महावीर के निकट पहुँच गये। राजा श्रेणिक और रानी धारिणी ने मेघकुमार को उनके सम्मुख उपस्थित करके विनयपूर्वक कहा, "हे देवानुप्रिय ! यह हमारा इकलौता बेटा मेघकुमार है हमे वह प्राणों से प्यारा है। जैसे कमल पंक और जल में जन्मता और बढ़ता है पर तो भी पंक और जल से पथक रहता है, वैसे ही काम मनोरथों मे जन्मा और भोगवासनाओं में पाला-पोसा हुआ यह मेघकुमार आपका प्रवचन सुन कर भोगवासनाओं से अछूता हुआ है। जन्म-जरा और मरण का भय उसे हुआ है । वह इन तीनों को जीतने का इच्छुक है। माता-पिता की प्रकट अनुमति पाकर मेषकुमार ने वस्त्राभूषण उतार फेंके निम्रन्थ भेप में उन्होंने पंच मुष्टिों से केशों का लोंच करके अपने पराक्रम को प्रकट किया। इस अवसर पर उनकी मां का क्षत्रिय-हृदय प्रफुल्लित हो नाचने लगा। वह बोली:
"हे बेटा! खूब प्रयत्न करना, खूब पराक्रम करना। प्रमाद को पास न आने देना। एक दिन हम भी इस मार्ग मे लगेंगे