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( १८० ) ___ "जिस प्रकार सुशिक्षित और वख्तर से मंडित घोड़ा रणतंत्र में पीछे नहीं हटता, उसी प्रकार स्वच्छंद प्रवृत्ति का निरोधक वीर निर्वाण मार्ग से पीछे नहीं हटता! कोई सहन ही विवेक को नहीं पा सकता! अतः जागत बनो । काननायें छोड़ दो। संसार के स्वरूप को समझो। समभाव सीखो और असंयम से
आत्मा की रक्षा करते हुये अप्रमत्त हो कर विचरो ।। ___ "मोह को जीतने का प्रयत्न करने वाले के मार्ग में बहुत वाधाये आती हैं, इस लिये उनमें न फंसकर सावधानता से अद्वेयभाव पूर्वक प्रवृत्ति करो! ललचाने वाले पाशों में मन को उलमने से रोको, क्रोध पर अंकुश रक्खो मान दूर करदो ! माया का सेवन मत करो और लोभ का त्याग कर दो प्राणी मात्र पर दया भाव रक्खो। उनका और अपना मान करो।"
भ० महावीर का ऐसा सारगर्भित उपदेश सुनकर मेवकुमार प्रसन्न हुआ। उसका हृद्य निर्मल हो गया। वह भगवान् की उपासना करता हुआ वोला. 'हे भगवान् ! आपका कथन मुझे रुचा है-मेरी उस पर अहा है-मैं पुरुषार्थ प्रकट करके बन्धन मुक्त बनना चाहता हूँ। अतः आज्ञा दीजिये कि मैं अपने मातापिता की सन्मति ले लं" भगवान् मौन थे। मेवकुमार नमस्कार करके घर लौट आया। । घर पहुंचते ही मेघकुमार ने श्रमण दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की! वैराग्य का गहरा रंग उनके दिल पर चढ़ गया था। माता-पिताके मोही-मन पर गहरा आघात हुआ। उन्होंने बहुत समझाया-बझाया, फुसलाया और उनकी पत्नियों सहित उन्हे रिमाया, परंतु मेघकुमार का निश्चय ध्रुव था। वह लोक से
१. म. महावीर नी धर्मयाथो, पृ. 15-16