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जहाँ तीर्थंकर भगवान् का समोशरण था । दूर से भगवान् को देखते ही वह रथ से उतर पड़ा और राजचिन्ह छोड़ कर विनय और सावधानी से उनके निकट पहुँचा । तीन प्रदक्षिणा देकर उन्होंने नमस्कार और वन्दना की । वह नर कोठे में बैठ कर धर्मोपदेश सुनने लगे । उन्होंने सुनाः
"जीवित प्राणी संसार मे किसी भी उपाय से जरा, व्याधि और मृत्यु से रहित नही हो सकता । अतः कल्याण के इच्छुक मनुष्यों को जरा भी प्रमाद न करना उचित है । जरा से घिरे हुए प्राणी की रक्षा कैसी ? यह अवश्य जानो । प्रमत्त असंयमशील और हिंसक लोक किस रीति से रक्षणगृह हो सकता है ? जरा सोचो जो मनुष्य दुर्बुद्धि पूर्वक पापकर्म करके धन कमाते हैं वह वैर विपाद करके नर्क के रास्ते लगते हैं । जैसे चोर अपने हाथों से उकेरी हुई सेव मे पकड़ा जाता है, वैसे ही पापाचारी मनुष्य अपने ही किए हुये कर्मों से वधता है । इह लोक और परलोक में समस्त प्राणी पाप से ही पीड़ित होते हैं, क्योंकि संचित कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता । अपने या परके लिये मनुष्य जो भी पाप कर्म करता है, उन सब का फल उस केले को ही भोगना पड़ता है । उस समय कोई भी भाई-बंधु अपना भाईचारा नहीं जतला सकता ।
मोहवश प्राणी सुन्दर-सी दिखती वस्तु और धनादि में आसक्त होता है, परंतु वह प्रमत्त मनुष्य पापकमों के फल से धनादि की वृद्धि नहीं कर सकता है । अत. सोते हुओं के बीच जगते रहो ! आशुप्रज्ञ पंडित, सोते हुओं का विश्वास न करो ! काल निर्दयी है और शरीर अवल है । अत: अप्रमत्त रहकर सदाचरण करो । बन्धन वाले स्थान मे सावधानी से रहो । संयम का लाभ होवे तो जीवन पोषो । यदि वह असंयम का कारण बने तो उसका नाश अच्छा ।