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( १६८ ) हो रहा था।उनके मद में मत्त होकर वह सत्य से भटक रहा था। एक दिन रास्ता चलते हुये उसे एक जैनी पथिक मिल गया। जैनी मूढ़ताओं और मदों से दूर रहता है। जैनी ने देखा कि वह ब्राह्मण पुत्र पत्थरों के ढेर के पास खड़े हुये एक वृक्ष को भूतों का आवास मानकर पूज रहा है । वह हंसा और पेड़ से कुछ पत्ते तोड़कर बोला, 'देखो! तुम्हारा देव मेरा कुछ नहीं विगाड़ सकता!' ब्राह्मण पुत्र ने सरोष कहा, 'अच्छा है, मैं भी तेरे देव की अवज्ञा करूंगा' दोनों रास्ता लगे। आगे कपिरोमा बेल को देखकर जैनी ने कहा, 'यह मेरा देवता है !' ब्राह्मणपुत्र ने आव देखा न ताव, झट से उसके पौधे उखाड़ने पर टूट पड़ा। थोड़ी देर मे उस वेल के स्पर्श से उसके हाथ-पैरों में जोर की खुजली मची। अब तो उसका माथा ठनका-वह समझा, निस्सन्देह इस जेनी का यह देव सच्चा है। जैनी इस पर खूब हंसा और बोला, 'प्रिय विप्र ! तुम भूलते हो । दुनिया में कोई ऐसा देव या ईश्वर नहीं है जो किसी को सुख-दुख का देने वाला हो । जीव जो अच्छे और बुरे कर्म करता है, उसी से पुण्य और पाप संचित करके सुख-दुख भुगतता है-संचित कर्म-लीव की करनी ही उसका मूलकारण है ! अतः तप, दान
आदि सत्कार्य करना चाहिये । जो दूसरों की प्रशंसा और निन्दा से प्रसन्न और रुष्ट हो सकता है, वह देव कैसा ? मनुष्य मे और उसमें अन्तर ही क्या ? वह देव ईश्वर है तो वह कृतकृत्य है
यद्यपि शास्त्रों में तीन मुटताओं का उल्लेख मिलता है, परन्तु श्री गुणभद्राचार्य ने 'उत्तर पुराण (प० ६२४ ) में श्रमयकुमार के पूर्व भव वर्णन में चार मूढतायें लिखी हैं। उसके अनुसार ही यह प्रकरण लिखा जा रहा है। 'द्विजोद्भुत-देवमौक्ष्य.'-'विपत्तीधमौन्य निराक. रोत्'--'हेतुर्मिनाविमौल्यमस्य निराकरोत्'--