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अभय राजकुमार की प्रव्रज्या !
'वीर धम्मु, जो आयर वंभणु सुदवि कोइ ! सो साव, किं सावयहं अणु कि सिरि मणि होइ ॥
"भ० महावीर के धर्म का जो आचरण करता है, ब्राह्मण चाहे शूद्र, कोई भी हो, वही श्रावक है। और क्या श्रावक के सिर पर कोई मणि रहती है ?"
विपुल
- श्री देवसेन सूरि, पुलाचल की मनोरम शिखिर - भूमि पर तीर्थङ्कर महावीर का समवशरण अनुपम शोभा पा रहा था । देवोपनीत विभूति से वेष्टित सर्वज्ञ भगवान् गंधकुटी मे अंतरीक्ष विराजमान थे । सामने रक्खे हुये दर्पण में जैसे प्रतिबिम्ब साफ दिखता है, वैसे ही परमहित् वीतराग भगवान् के ज्ञान दर्पण में तीन लोक और तीन काल का बिम्ब दृष्टि पड़ रहा था । गणधरों और राजा-महाराजाओं के पुण्य प्रभाव से जिनेन्द्र की धर्मामृत वर्षा हो रही थी । अवसर पाकर सम्राट् श्रेणिक के विद्वान् और यशस्वी पुत्र अभय राजकुमार ने नतमस्तक होकर भगवान् से अपने पूर्वभव पूछे कौन से अच्छे काम उसने किये, जिससे वह राजकुमार हुआ ? उत्तर में उन्होंने सुना कि 'उस जन्म से तीसरे भव मे वह भव्य होकर भी बुद्धिहीन था । वह किसी ब्राह्मण का पुत्र था और वेद पढ़ने के लिए देश विदेश में घूमता फिरता था । वह मूढ़ताओं - पाखंड मूढ़ता, देव मूढ़ता, तीर्थमूढ़ता और जाति मूढ़ता में विमोहित होकर आकुल व्याकुल
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