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अपने जीवन के अन्तिम भाग में श्रेणिक राज-काज से मुक्त हो गये। उनके कई पुत्र उनके देखते २ अरण्यवासी मुनि हो गये थेः फिर भला वह राजमोह में ही क्यों पगे रहते ? शहद लपेटी हुई तलवार को कवतक चाटते रहते ? उन्होंने कुणिक अजात शत्र को राज पद दिया और स्वयं एकान्तवास किया। वह सत्संगति में समय का सदुपयोग करते थे, परतु ब्रतों को धारण करने में असमर्थ रहने के कारण उनका दिल छटपटाता था ! उनका पूर्व कर्मबन्ध उनके मार्ग में बाधक था। वह सद्भावना लीन रहे। उधर पूर्व वैर वशात् कुणिक ने समझा श्रेणिक उसके विरुद्ध प्रजा को भड़काते हैं। पाखंडी देवदत्त ने उसे वहका दिया। श्रेणिक को उसने बन्धन में डाल दिया। वन्धन में रहते हुये ही भ० महावीर जी के जीवन काल में ही उनका निधन हुआ! वह सारे बन्धनों का अन्त तीर्थङ्कर पद्मनाभ होकर करेंगे! यह थी विशेषता भ० महावीर के सम्पर्क में आने की ! वह मनुष्य को वन्धन मुक्त और आत्मस्वातंत्र्य का सरस भोग कराने का मार्ग सुमाते थे!