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इच्छा से रहित है, वह किसी को दुखी क्यों करेगा ? सब ही जीव जब उसके हैं तब वह किसी का भला और किसी का बुरा कैसे करेगा ? एक छोटे से गांव का रक्षक भी तो यह नहीं करता -- वह ईश्वर होकर कैसे करेगा ? अपनी ही पुत्र- सी प्रजा में वह दारुण महामारी क्यों फैलायेगा ? क्यों वह उनको ऐसी दुबुद्धि देगा कि जिससे उसकी सन्तान आपस में ही लड़ मरे और भीषण नर संहारक शस्त्रास्त्रों को सिरजे ? कोई भी दयालु ईश्वर यह नहीं कर सकता । संसार मे यह विषमता दिखती है । इस लिए कोई ऐसा ईश्वर नहीं है जो जीवों को बनाने और बिगाड़ने वाला हो या उनको सुख-दुख देने वाला हो !' ब्राह्मण पुत्र झल्ला गया और बोला, 'बिना कारण के दुनियां मे कोई कार्य होता ही नहीं ? इसलिए तुम्हारी बात ठोक नहीं ।' जैनी मुस्कराकर कहने लगा, 'शायद तुम ठीक कहते हो, परंतु जरा सोचो तो ! संसार का कारण ईश्वर है, तो वह कैसा कारण है ? क्या उपादान कारण है, वैसे ही जैसे घड़े का कारण मिट्टी; कड़ े का चांदी ? यदि ऐसा है तो संसार में और ईश्वर में कुछ अन्तर नहीं रहता- वह ईश्वर का रूपान्तर ठहरता है । दुनियां की सभी बुराई भलाई, सुख-दुख, पाप-पुण्य दया- क्रूरता - सभी ईश्वर से और ईश्वर में भी मानना पड़ेगी । परिणाम यह होगा कि ईश्वर सुखमय की अपेक्षा दुखमय अधिक प्रगट होगा - वह दयालु की अपेक्षा क्रूर अधिक भासेगा, क्योंकि जगत मे चहुँओर क्रूरता का राज्य है ! उपादान कारण होने के कारण ईश्वर निर्विकार भी नहीं रहेगा ! यदि ईश्वर को निमित्त कारण मानो, तो उपादान कारण दूसरा मानना पड़ ेगा । यदि विना उपादान कारण के सृष्टि रची तो अभाव से भाव की उत्पत्ति माननी होगी ! फिर कार्य-कारण का सिद्धान्त ही गिर जायगा । तब जगत को देखकर उसके सृष्टा संचालक