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से ही विश्वास करता है । वायु को किसी ने नेत्र से नहीं देखा है - उसके स्पर्शन से ही उसका अस्तित्व मानते हैं । इसी तरह छदमस्थ जीव मनुष्य स्थल नेत्रों से स्वर्ग और नर्क नहीं देख पाता है; परन्तु वही विशेष ज्ञानी हो जावे तो ज्ञान नेत्र से उन्हें देख लेवे । फिर भी स्थल रूप में देवपर्याय के किन्हीं जीवों के दर्शन लोक को होते ही हैं । कभी २ किसी यक्ष या व्यन्तर के उपद्रव की बात दुनिया देखती और सुनती है । ज्योतिषी देवों के पटलों-नक्षत्रों और तारों को हर कोई देखता है । जब देवों की एक जाति प्रत्यक्ष दीखती है, तब स्वर्गवासी देवों का अस्तित्व क्यों न माना जावे ? इष्ट सिद्धि के लिए संसार के पुरुष इन्द्र यक्ष आदि की पूजा करते मिलते हैं । इसलिये स्वर्ग के विषय मे शङ्का करना व्यर्थ है । मनुष्य को निःशङ्क होकर दर्शन - ज्ञान की उपासना और पालना करना उचित है - वह उसे एक दिन अपने ज्ञान को प्रकाशित करके लोक की सभी बातों को देख सकता है ! आधिभौतिकता का अन्ध अनुकरण पतित और दुखी बनाता है; परंतु आत्मा की उपासना उसे शुद्ध-बुद्ध - चिदानन्द परमात्मा के दर्शन कराती है । क्या तुम्हें स्मरण नहीं - सुध नहीं है अपनी आत्मा की ? उस दिव्य निधि की, जो तुम्हारे अन्तरंग में विद्यमान है ।"
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राजसिंह श्रेणिक ने भक्तिभाव से अपना हृदय और मस्तक श्रमण सिंह महावीर के चरणों मे नमा दिया । वह अपने परिवार सहित जिनेन्द्र महावीर का उपासक बना। मोहनीयकर्म को सात प्रकृतियों के क्षयस्वरूप उसे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई ! वह परमोच्च श्रावक हो गये और धर्म प्रभावना मे निशदिन तल्लीन रहे । लोकोपकार करने मे उन्हें रस आता था । उनकी प्रसिद्धि और कीर्त्ति नरलोक ही क्या स्वर्गलोक मे भी पहुँच गई । एक देव को कौतुक हुआ उसे सुनकर, और वह श्रेणिक की
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