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( १६२ ) परीक्षा करने के लिये चल पड़ा। देव ने एक दिगन्वर मुनि का भेष बनाया। वह भेपी तालाब के किनारे वशी डालकर बैठ गया
और मछलियो पकड़कर कमंडल में डालने लगा। श्रेणिक उधर से निकले और यह देखकर दंग रह गये। नट हाथी से उतर कर मुनिभेपी देव के पास पहुँचे और नमस्कार करके वोले, 'यह मुनिचर्या का घातक व्यवसाय है। कहिये तो इन मछलियों को पानी में छोड़ दूं।' परन्तु मुनिवेपी राजी न हुआ और मछलियाँ पकड़ता रहा, श्रेणिक इतने पर भी विचलित न हुये। उन्होंने विनय पूर्वक उनसे राजप्रासाद में चलने के लिये कहा और उनकी स्वीकृति पर मछलियों को पानी मे छोड़ दिया। श्रेणिक बढ़ सम्यक्त्वी थे वह यह सहन नहीं कर सकते थे कि किसी तरह जैनधर्म का उपहास हो । वह जानते थे कि उपर्यत मुनिभेपी निन्दनीय कर्म कर रहा है, फिर भी उन्होंने उसके दिगम्वर-भेप को इसीलिए नमस्कार किया कि दुनियाँ कहीं उस दिगम्बर भेष की निन्दा न करने लगे ! सच्चे मुनि भी किसी एक पाखंडी के कारण कष्ट में न पड़ जावें। उस पर गलती किस से नहीं होती? मनुष्य का कर्तव्य है-सम्यक्त्व की मांग है कि वह गलती में पड़े हुये प्राणी को उसकी गलती सुमावे
और उसके हृदय में उसके उस बुरे कृत्य के प्रति ग्लानि उत्पन्न करा देवे। गिरते हुये-चिगते हुये भाई को धक्का देकर गिरा न दे, गिरते को सहारा दोगे तो वह सम्मलेगा, धक्का दोगे तो वह नीचे गिरेगा। गिरतों को ऊपर उठाना धर्म है। उपगहन
और स्थितिकरण धर्म के अंग हैं । सम्यक्त्वी उन्हे पालता है। श्रेणिक के राज-दरबारियों ने मौका पाकर उपर्युक्त घटना पर मीठी चुटकी ली । राजा ने आज्ञा दी कि 'जो भी राजपत्र लिखे जॉय व आयें वे विष्टा से चिन्हित किये हुए हों, राजा की आज्ञा को कौन लौटता ? जो कहा वह हुआ। वही राज-दरवारी