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( १६० ) सुना था। वह चौंका और पूछा, 'धर्म क्या चीज़ होती है ? उत्तर में मुनि ने कहा, 'मद्य-मांस-मधु' का त्याग करने में धर्म है। मद्य पीने से बद्धि भ्रष्ट होती और मांस-मधु खाने से शरीर नीरोग नहीं रहता । इनके खाने में बड़ी हिंसा होती है। इसलिये इनके त्यागने मे जीव रक्षा होती है, जिससे स्वगों के सुख मिलते हैं। भील ने कहा, 'यह व्रत तो मैं नहीं पाल सकता!' मुनि महाराज भी उसकी कुलागत असमर्थता समझ गये। उन्होंने कहा, 'अच्छा तुम सिर्फ कउवे का मांस खाना छोड़ दो।' भील ने यह शिरोधार्य किया। भाग्यवशात् कालान्तर में वह रोगी हुआ और लोगों ने कहा कि कउवे का मांस खाने से वह अच्छा हो जायगा; परन्तु भील ने व्रत ले रक्खा था। उसने प्राणों की परवाह न करके कउवे का मांस खाने से इन्कार कर दिया। शक्ति को न छिपा कर थोड़ी सी धर्म साधना भी महती फल देती है। खदिरसार मांस खाता अवश्य था, परन्तु उसके हृदय ने यह मान लिया था कि उसका वह कर्म बुरा है। उसे संतोष था कि वह वहुत थोड़े रूप मे ही सही अहिंसा पाल रहा है। उसका हृदय परिवर्तन हुआ था । इसीलिये उस की आत्म दृढ़ता ने उसे समभावी बनाया-वह मरा और सौधर्मस्वर्ग में देव हुआ। स्वर्गीय सुख भोग कर देखो, राजन् ! व्रत पालन की दृढ़ता के पुण्यफल से तुम ऐश्वर्यवान् राजा हुये हो! यह है धर्म-पालन का महत्व "
श्रेणिक ने मस्तक नमाया और कहा, 'दीन बन्धो आप सत्य कहते हैं, परंतु दुनिया के लोग यह सहसा नहीं मानते कि कहीं स्वर्ग-नर्क भी हैं !" श्रेणिक ने उत्तर में सुना "लोगों की यह भूल है। दुनिया की सभी चीजें और वा आंखों से नहीं देखी जाती-बहुत सी बातों का विश्वास आराम से सुनकर भी किया जाता है। पुत्र अपने पिता के व्यक्तित्व में माता के कहन