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आप ही अशरण की शरण है । मुझे क्षमा कीजिये !"
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श्रेणिक को तीर्थंकर महावीर के सदुपदेश से सत्साहस हुआ, उसके परिणाम निर्मल हो चले - उन्होंने आगे सुना कि "संसार के भीरु प्राणी पर्वत, वन-वृक्ष, चैत्य, यक्ष, इन्द्र आदि को देव मानकर उनकी शरण में जाते हैं; किन्तु यह शरण मंगलदायक नहीं - उत्तम नहीं, क्योंकि यह शरण उसको सब दुःखों से नहीं बचाती । जो स्वयं मृत्युशील है, वह दूसरे को कैसे अमर बनाए ? जो स्वयं आशाओं और वाञ्छाओं में जल रहा है, वह कैसे दूसरों को संताप से मुक्त करेगा ? लोक में चार मंगल है ! और चार ही शरण है । अहंत की शरण में जाओ, सिद्ध की शरण में पहुॅचो, साधु महाराज की शरण प्राप्त करो और केवली भगवान् के बताये हुये धर्म को ही शरण जानों !! उस धर्म के आश्रय मे पहुॅचो - वह दुख को शमन करने की ओर ले जाता है - इसीलिये धर्म उत्तम शरण है। राजन् ! तुमने अपने पूर्वभव में इस अहिंसा धर्म का छोटा-सा वीज अपनी हृदय-भूमि मे बोया था, वही विकसित होकर वट वृक्ष की तरह महान पुण्यफल को देने वाला हुआ है । अपने तीसरे भव में तुम्हारा जीव विंध्याचल पर्वत के कुटच नामक वन मे खदिरसार नाम का भील था । महा-प्रचण्ड और उग्र तुम्हारा चित्त था - प्राणियों की हिंसा करना तुम्हारा खिलवाड़ और आजीविका का साधन था । एक दिन समाधिगुप्त मुनि ने तुम्हे 'धर्म लाभ' रूप आशीर्वाद दिया । तुम्हारे जीव भील खदिरसार ने धर्म का नाम नहीं
१. " चत्तारि मंगलं । श्रईत मंगलं । सिद्धा मगलं । साहू मगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मगलं । " " चत्तारि सरणं पव्वजामि | श्रर्हेता सरण पब्वजामि । सिद्धाः सरणं पव्वजामि | साहू सरणं पञ्चामि । केवनि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्यजामि । "