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पर दोनों रोते हैं - लहू लुहान होते हैं । वासना में आनन्द होता तो उसका भोग सदा सुखदायी होता रोगी भी भोग भोगकर सुख पाता - पित्त ज्वर गृस्त प्राणी मीठा लड्ड ू खाकर आनन्द पाता; परन्तु ऐसा नहीं होता । इसलिये ही बुद्धिमान पुरुष लोक की मृग मरीचिका में नहीं पड़ते हैं। गरम लोहे को मनचाही शक्त दी जाती है, इसलिये युवावस्था में ही प्राणी को अपना जीवन संभाल लेना चाहिये । श्रेणिक ! तुमने बहुत से युद्ध लड़े हैं-बड़े २ शूरमाओं को पछाड़ा है, परन्तु यथार्थ युद्ध वही है जिसमें मोह और कषाय रूपी शत्रुओं को परास्त किया जाता है ! सुख भोग में नहीं, त्याग में है ! गाठ से गाढ़ी कमाई का पैसा खर्चने पर ही सुखाभास की वह ऐहिक सामग्री मिलती है, जिस पर प्राणी मुग्ध है । यह त्याग स्वार्थ साधना के लिये है, परन्तु जो त्याग परमार्थ के लिये किया जाता है वह अमित पुण्यफल को देता है, "
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श्रेणिक ने हाथ जोड़ कर कहा, "धन्य हो । नाथ | ठीक कहते हो ।” उन्होंने आगे सुना, "राजन् । संसार में रहकर प्राणी सुख को नहीं पा सकता, क्योंकि उसका श्रात्मा इन्द्रिय-वासनाओं का गुलाम होता है । गुलामी में - दासता में सुख नहीं है । आत्मस्वातंत्र्य ही सुख मूल है। इसलिये वृद्धावस्था की वाट न जोह कर प्राणी को अपना हित शीघ्र साधना उचित है । धर्म ही मंगल का मूल है । उसको ही धारण करने में आत्मा का कल्याण
| झूठे रीति रिवाजों, गंगा-गोदावरी के स्नानो और पाखडियों को दान-दक्षिणा देने से धर्म नहीं होता । धर्म सदाचरण से होता है । सम्यक् श्रद्धापूर्वक शुभ कर्मों को करने से धर्म पलता है और शुभकर्म वही हैं जिनसे अपनी और पराई आत्मा का अहित न हो - अन्तरंग में आकुलता न बढ़े ! सम्राट् ! तीर्थङ्कर वासुपूज्य के समय में अशोक और रोहिणी महापुण्य